Saturday 18 August 2018

सिद्धू से खुश हुआ पाकिस्तान,इमरान की पार्टी ने डाला ऐसा ऑफर की भाजपा को नहीं पचेगा

नई दिल्ली।नवजोत सिंह सिद्धू के पाकिस्तान जाने को लेकर भारत में जमकर बवाल मचा हुआ है, इसी बीच पाकिस्तान से एक और बड़ी खबर आई है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पीटीआई के एक सिनेटर ने सिद्धू को पाकिस्तान में चुनाव लड़ने का ऑफर दिया है। ये वाकया तब हुआ जब एक पाकिस्तानी न्यूज चैनल नवजोत सिंह सिद्धू से उनके पाक यात्रा पर प्रतिक्रिया ले रहा था। पाकिस्तान आर्मी चीफ ने सिद्धू को लगाया गले दरअसल क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू, प्रधानमंत्री के रूप में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रमुख इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने शुक्रवार को पाकिस्तान पहुंच गए। सिद्धू वाघा सीमा के जरिए लाहौर पहुंचे और शनिवार को शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए। कार्यक्रम स्थल पर सिद्धू ने पीटीआई नेताओं से लंबी बातचीत भी की। इसी दौरान पाकिस्तान के सेना के चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा से सिद्धू गले भी मिले, जिसे लेकर भारत में राजनीति गरम है। पाकिस्तान से ही चुनाव लड़ लें सिद्धू साहब: फैसल जावेद इमरान खान के शपथ ग्रहण के बाद सिद्धू पाकिस्तानी मीडिया से भी रूबरु हुए। इसी दौरान पीटीआई के सिनेटर फैसल जावेद ने कहा कि इतना कमाल है कि अब हम सोच रहे हैं कि सिद्धू साहब यहीं से चुनाव लड़ जाएं। ये इतने फेसम हैं, इनकी मोहब्बत है। हर मसला टेबल पर बैठकर हल कर लेंगे। सिद्धू भाई का जो पैगाम है, वे बहुत पॉजिटिव है। सरहद पार कर बदले सिद्धू के सुर पाकिस्तान में सिद्धू ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भी किया। भारत रवाना होने से पहले नवजोत सिंह सिद्दू ने कहा कि मैं मोहब्बत का एक पैगाम हिन्दूस्तान से लाया था। जितनी मोहब्बत मैं लेकर आया था, उससे 100 गुणा ज्यादा मोहब्बत मैं वापस लेकर जा रहा हूं। जो वापस आया है, वो सूद समेत आया है। मीडिया से बात करते हुए सिद्धू ने कहा कि ये हमारी ड्यूटी है कि हम वापस जाने के बाद अपने सरकार से कहे कि वो पाकिस्तान की ओर दोस्ती का एक कदम बढाए। मैं आशा करता हूं कि भारत सरकार के एक कदम पर पाकिस्तान की ओर से दो कदम बढ़ाए जाएंगे। जनरल बाजवा ने आज मुझसे गले मिलते हुए कहा कि हम शांति चाहते है। इसलिए हमे नीले समंदर में तैरना चाहिए न कि खून से रंगे लाल समंदर में। इमरान बदलेंगे पाक की किस्मत: सिद्धू वहीं पाकिस्तान के राष्ट्रीय चैनल ‘पीटीवी’ से बातचीत में सिद्धू ने इमरान की प्रशंसा की और कहा कि पाकिस्तान में नई सरकार के साथ एक नई सुबह हुई है। यह सरकार इस देश की किस्मत बदल सकती है। उन्होंने उम्मीद जताई कि दोनों पड़ोसी देशों के बीच शांति प्रक्रिया में इमरान की जीत से लाभ होगा।

प्रेस की आज़ादी पर 300 अमरीकी अख़बारों के संपादकीय

अमरीकी प्रेस के इतिहास में एक शानदार घटना हुई है। 146 पुराने अख़बार बोस्टन ग्लोब के नेतृत्व में 300 से अखबारों ने एक ही दिन अपने अखबार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संपादकीय छापे हैं। आप बोस्टल ग्लोब की साइट पर जाकर प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर लिखे गए 300 संपादकीय का अध्ययन कर सकते हैं। सबके संपादकीय अलग हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थी को सभी संपादकीय पढ़कर उस पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट लिखना चाहिए। आप जानते हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प जब तक प्रेस पर हमला करते रहते हैं। प्रेस के ख़िलाफ़ अनाप-शनाप बोलते रहते हैं। अमरीकी प्रेस ने जम कर लोहा लिया है। मैं न्यूयार्क टाइम्स और बोस्टन ग्लोब के संपादकीय का अनुवाद कर रहा हूं ताकि हिन्दी के युवा पत्रकार और पाठक अमरीकी प्रेस के मानस में झांक कर देख सकें। पहला न्यूयार्क टाइम्स का है- 1787 में जब संविधान का जन्म हुआ था, उस साल थॉमस जफरसन ने अपने मित्र को लिखा था कि अगर मुझ पर इसका फ़ैसला छोड़ा जाता कि सरकार हो मगर अख़बार न हो, अख़बार हो लेकिन सरकार न हो तो मैं एक झटके में दूसरे विकल्प को चुन लेता। जैफ़रसन की राष्ट्रपति बनने से पहले ये सोच थी। बीस साल बाद व्हाइट हाउस के भीतर से प्रेस को देखने के बाद उनके मन में इसके महत्व को लेकर भरोसा कुछ कम हो गया था। “अख़बार में जो छपता है उस पर कुछ भी विश्वास नहीं किया जा सकता है, इस प्रदूषित वाहन में डालने भर से सत्य संदिग्ध हो जाता है ।” जैफ़रसन के विचार अब ये हो जाते हैं। जैफ़रसन की असहजता समझी जा सकती है। एक खुले समाज में न्यूज़ की रिपोर्टिंग का उद्यम कई तरह के हितों के टकराव से जुड़ जाता है। उनकी असहजता से उन अधिकारों की ज़रूरत भी झलकती है जिसे उन्होंने संविधान में जोड़ा था। अपने अनुभवों से संविधान निर्माताओं को लगा था कि सही सूचनाओं से लैस जनता को भ्रष्टाचार मिटाने और आगे चलकर आज़ादी और न्याय को प्रोत्साहित करने में मदद मिलती है। सार्वजनिक बहस राजनीतिक कर्तव्य है। 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था। यह बहस बिना किसी झिझक के खुले मन से होनी चाहिए। कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए, भले ही वो किसी को अच्छा न लगे। 2018 में सरकारी अधिकारियों की तरफ से ही प्रेस को लेकर क्षति पहुंचाने वाले हमले हुए हैं। किसी स्टोरी को कम दिखाने या ज़्यादा दिखाने को लेकर न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है। कुछ ग़लत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है। न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक भी इंसान हैं। उनसे ग़लतियां होती हैं। उन्हें ठीक करना हमारे पेशे का अहम हिस्सा है। लेकिन आपको जो सत्य पसंद नहीं है उसे फेक न्यूज़ कहना लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है। पत्रकारों को जनता का दुश्मन कहना भी ख़तरनाक है। अमरीका में छोटे अखबार आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं। देश भर के पत्रकारों की रक्षा के लिए बने कानून भी कमज़ोर हैं। ऐसे में प्रेस पर होने वाले ये हमले उनके लिए चुनौती बन गए हैं। इन सबके बाद भी इन अख़बारों के पत्रकार सवाल पूछने के लिए मेहनत किए जा रहे हैं और आप तक उन स्टोरी को पहुंचा रहे हैं जिनके बारे में आपको पता भी नहीं चलता। The San Luis Obispo Tribune ने जेल में बंद एक कैदी के बारे में रिपोर्ट छापी थी जिसे 46 घंटे तक रोक कर रखा गया था। इस रिपोर्ट ने देश को मजबूर कर दिया कि जेल में मानसिक रूप से बीमार कैदियों के इलाज में बदलाव लाया जाए। पिछले हफ्ते The Boston Globe का प्रस्ताव आया था कि उनके इस अभियान में कस्बों के छोटे अख़बारों से लेकर महानगरों के बड़े अख़बार शामिल हो रहे हैं। The Times भी इसमें शामिल हो गया ताकि हम अपने पाठकों को अमरीका के आज़ाद प्रेस के महत्व को याद दिला सकें। ये सभी संपादकीय एकजुट होकर अमरीकी संस्थान के बुनियाद को रेखांकित कर रहे हैं। अगर आपने इन संपादकीय को नहीं पढ़ा है तो प्लीज़ लोकल अखबारों को सब्सक्राइब करें, जब भी वे अच्छा काम करें, उनकी तारीफ करें और अगर लगे कि इससे भी अच्छा कर सकते हैं तो उनकी आलोचना करें। हम सब इसमें साथ हैं। न्यू यॉर्क टाइम्स का संपादकीय यहां समाप्त होता है। क्या भारत के बड़े अख़बार छोटे अख़बारों के हक में ऐसे संपादकीय लिख सकते हैं, क्या वे प्रेस की आज़ादी के अपने अभियान में छोटे अख़बारों को शामिल करते हैं? न्यू यार्क टाइम्स के इस संपादकीय से आपको झलक मिलती है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों को अभिव्यक्त करने में कितना पीछे हैं। इसलिए हिन्दी के पत्रकार जिनका जीवन हिन्दी के अखबारों में निश्चित ही नष्ट होने वाला है, उन्हें इसे पढ़ना चाहिए। कई बार स्वाध्याय ही नष्ट होने से बचा लेता है। अख़बार और पत्रकारिता नष्ट हो जाएगा मगर एक पढ़ा लिखा सचेत पत्रकार बचा रहेगा। वो बच जाएगा तो फिर कभी सब ठीक भी हो जाएगा। अब आप अमरीका के दि बास्टल ग्लोब अखबार की साइट पर जाएं। वहां इस अभियान के बारे में लिखा है। इस अख़बार ने उन सभी अखबारों के संपादकीय बोर्ड से संपर्क साधा जो उदार मूल्यों और प्रेस की आज़ादी में यकीन रखते हैं। “राष्ट्रपति ट्रंप की राजनीति के मुख्य केंद्र में आज़ाद प्रेस पर लगातार हमला करते रहना। पत्रकारों को अमरीकी नागरिक नहीं माना जाता है बल्कि उन्हें लोगों के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है। आज़ाद प्रेस पर होने वाले निरंतर हमलों के ख़तरनाक परिणाम होंगे।इसलिए हमने देश भर के सभी छोटे और बड़े उदारवादी और रूढ़ीवादी अख़बारों के संपादकीय बोर्ड से संपर्क किया कि वे इन बुनियादी हमलों को लेकर अपने शब्दों में संपादकीय लिखें। ” जब देश में कोई भी भ्रष्ट सत्ता काबिज़ होती है तब उसका काम होता है कि आज़ाद प्रेस की जगह सरकार संचालित मीडिया को ले आए। आज अमरीका में हमारे पास एक ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्होंने ऐसी सोच तैयार कर दी है कि मीडिया का जो हिस्सा मौजूदा प्रशासन की नीतियों को सपोर्ट नहीं करता है, वह जनता का दुश्मन है। राष्ट्रपति द्वारा फैलाए गए कई झूठ में से एक झूठ यह भी है। ” स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है।” जॉन एडम का यह सूत्र वाक्य 200 सालों से ज़्यादा अमरीकी सिद्धांतों का हिस्सा रहा है जिसने पत्रकारों की देश में रक्षा की है। दुनिया के अन्य देशों में प्रेस के लिए मॉडल का काम करता रहा है। आज इस पर गंभीर ख़तरा है। बीजिंग से बगदाद और अंकारा से लेकर मॉस्को तक के तानाशाहों की तरफ से ये सिग्नल लगातार दिया जा रहा है कि पत्रकारों को जनता का दुश्मन घोषित किया जा सकता है। स्वतंत्रत समाज के लिए प्रेस अनिवार्य है क्योंकि यह नेताओं पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करता है। चाहे वो स्थानीय योजना बोर्ड के सदस्य हों या फिर व्हाईट हाउस के। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि मौजूदा राष्ट्रपति के वित्तीय मामलों में कई झोल हैं, जिनके संदिग्ध व्यावहारों के चलते उन्हीं के जस्टिस डिपार्टमेंट ने उनकी जांच के लिए एक स्वतंत्र वकील की नियुक्ति की है। अब ऐसे राष्ट्रपति ने उन पत्रकारों को धमकाने की बहुत कोशिश की है जो स्वंत्तर रूप से कई तथ्यों को सामने लाते हैं। अमरीका में सबके बीच एक स्थापित और निष्पक्ष सहमति रही है कि प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके बाद भी अब ऐसे बहुत से अमरीकन हैं जो इस मत को नहीं मानते हैं। इस महीने Ipsos ने एक सर्वे किया था जिसमें 48 फीसदी रिपब्लिक समर्थकों ने माना है कि न्यूज़ मीडिया अमरीकी जनता का दुश्मन है। एक और सर्वे में 51 फीसदी रिपब्लिकन ने प्रेस की तुलना जनता के दुश्मन से की है। लोकतंत्र का अहम हिस्सा नहीं माना है। ट्रंप के हमले से पता चलता है कि क्यों उनके समर्थक इस अलोकतांत्रिक रवैये का समर्थन करते हैं। एक चौथाई अमरीकी अब कहने लगे हैं कि राष्ट्रपति के पास ख़राब बर्ताव करने वाले प्रेस को बंद करने का अधिकार होना चाहिए। इस सर्वे में शामिल 13 फीसदी लोगों ने कहा है कि राष्ट्रपति को CNN, The Washington Post and The New York Times जैसे समाचार माध्यमों को बंद कर देना चाहिए। अपने समर्थकों को उकसाने वाला यह मॉडल बता रहा है कि 21 वीं सदी के तानाशाह रूस के पुतीन और तुर्की के एर्दोगन कैसे काम करते हैं। आपको सूचनाओं को रोकने के लिए आधिकारिक रूप से सेंशरशिप के एलान की ज़रूरत ही नहीं है। ट्रंप के समर्थक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनका इशारा सिर्फ उस मीडिया की तरफ है जो तटस्थ नहीं हैं। वे सारे प्रेस के बारे में ऐसा नहीं कहते हैं। लेकिन राष्ट्रपति के अपने ही शब्द और उनका रिकार्ड बार बार यही बताता है कि समर्थकों के इस तर्क में कितनी बेईमानी है। अमरीकी के संस्थापकों ने इस बात को महसूस किया था कि प्रेस तटस्थ नहीं भी हो सकता है फिर भी उन्होंने संविधान में प्रेस और पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया था। थॉमस जेफ़रसन ने लिखा था कि हमारी स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है और उसकी कोई सीमा नहीं तय की जा सकती है। संविधान के संस्थापकों से लेकर सभी दलों के नेताओं को मीडिया से शिकायतें रही हैं। मीडिया पर आरोप लगाते रहे हैं लेकिन एक संस्थान के रूप में प्रेस का हमेशा सम्मान किया गया है। बहुत लंबे समय की बात नहीं है जब रिपब्लिकन राष्ट्रपति रोनल्ड रेगन ने कहा था कि मुक्त प्रेस की हमारी परंपरा हमारे लोकतंत्र का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग रहा है और रहेगा। 1971 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ह्यूगो ब्लैक ने लिखा था कि प्रेस का काम शासित की सेवा करना है न कि शासक का। आज ट्रंप अपने साथ उसी मीडिया को लेकर ले जाते हैं जो उनके नेतृत्व की वकालत करता है। सवाल नहीं करता है। देखा जाए तो सिर्फ राष्ट्रपति ही अपने राजनीतिक और निजी फायदे के लिए लोगों में विभाजन नहीं कर रहे हैं। वे अपने समर्थकों से भी कहते हैं कि वो जो कह रहे हैं उसी का अनुकरण करें। पिछले महीने कंसास में उन्होंने कहा था कि बस हमारी सुनो, ये लोग( प्रेस) जो बकवास दिखाते हैं उस पर यकीन मत करो। इतना याद रखना कि जो आप देख रहे हैं या पढ़ रहे हैं वही सिर्फ नहीं हो रहा है। जार्ज ओरवेल ने अपने उपन्यास 1984 में कहा था कि “जो पार्टी आपको यह कहे कि अपनी आंखों और कानों के देखे-सुने सबूतों को मत मानो, यह उनकी तरफ से सबसे अनिवार्य और अंतिम फरमान है। ” George Orwell put it more gracefully in his novel “1984.” “The party told you to reject the evidence of your eyes and ears. It was their final, most essential command.” आज ट्रंप अपने समर्थकों को यही करने के लिए कहते हैं। अपने कार्यकाल के पहले 558 दिनों में उन्होंने 4,229 ग़लत दावे किए हैं। वाशिंगटन पोस्ट ने उनके झूठे दावों की सूची बनाई है। फिर भी ट्रंप के समर्थकों में मात्र 17 फीसदी ऐसे हैं जो मानते हैं कि अमरीकी प्रशासन लगातार झूठ बोलता रहता है। उनका झूठ ही तथ्य बनता जा रहा है। सूचनाओं से लैस नागरिकों के लिए झूठ उनके वजूद को नकारता है। अमरीका की महानता इस पर निर्भर है कि मुक्त प्रेस सत्ता के सामने खुलकर सत्य का बयान करे। प्रेस पर जनता का दुश्मन का लेबल चिपकाना अमरीकी पंरपरा नहीं है। दो सौ सालों जो जिस नागरिकता की साझा समझ हमने विकसित की है, उसके लिए यह फरमान ख़तरा है। दि बोस्टन ग्लोब का संपादकीय यहां समाप्त होता है। नोट- अच्छा होता कि कोई सभी तीन सौ संपादकीय का अनुवाद पेश करता है क्योंकि हर संपादकीय में अलग अनुभव और तथ्य हैं। इससे प्रेस की आज़ादी को लेकर हमारी समझ और विस्तृत होती है। हिन्दी के पाठकों और पत्रकारों के लिए मैंने अपनी छुट्टी के तीन चार घंटे लगाकर यहां अनुवाद किए हैं।यह इसलिए भी लिखा है ताकि आपको पता रहे कि इस तरह के काम में मेहनत लगती है। वक्त लगता है। सब कुछ फोकट में नहीं आता है। अगर आप चाहते हैं कि समाज बेहतर हो, तो अपने हिस्से का श्रमदान कीजिए। आने वाले दिनों में कुछ और संपादकीय का अनुवाद करूंगा।

Monday 13 August 2018

एक कैंपस के भीतर 29 बच्चियों के साथ बलात्कार होता रहा, बिहार सोता रहा

बिहार के मुज़फ्फरपुर में एक बालिका गृह है। इसे चलाते हैं एन जी ओ और सरकार पैसे देती है। इस बालिका गृह में भागी भटकी हुई लड़कियों को ला कर रखा जाता है, जिनका कोई ठिकाना नहीं होता है, मां बाप नहीं होते हैं। इस बालिका गृह में रहने वाली लड़कियों की उम्र 7 से 15 साल के बीच बताई जाती है। टाटा इस्टिट्यूट ऑफ साइंस जैसी संस्था ने इस बालिका गृह का सोशल ऑडिट किया था जिसमें कुछ लड़कियों ने यौन शोषण की शिकायत की थी। उसके बाद से 28 मई को एफ आई आर दर्ज हुआ और कशिश न्यूज़ चैनल ने इस ख़बर को विस्तार से कवर किया। यहां रहने वाली 42 बच्चियों में से 29 के साथ बलात्कार और लगातार यौन शोषण के मामले की पुष्टि हो चुकी है। एक कैंपस में 29 बच्चियों के साथ बलात्कार का नेटवर्क एक्सपोज़ हुआ हो और अभी तक मुख्य आरोपी का चेहरा किसी ने नहीं देखा है। पुलिस की कार्रवाई चल रही है मगर उसी तरह चल रही है जैसे चलती है। मई से जुलाई आ गया और पुलिस मुख्य अभियुक्त ब्रजेश ठाकुर को रिमांड पर नहीं ले सकी। इस मामले को शिद्दत से कवर करने वाले संतोष सिंह को राजधानी पटना की मीडिया की चुप्पी बेचैन कर रही है। वे हर तरह से समझना चाहते हैं कि एक कैंपस में 29 बच्चियों के साथ बलात्कार का एक पूरा नेटवर्क सामने आया है जिसमें राजनीतिक, न्यायपालिका, नौकरशाही और पत्रकारिता सब धुल मिट्टी की तरह लोट रहे हैं फिर भी मीडिया अपनी ताकत नहीं लगा रहा है। रिपोर्टर काम नहीं कर रहे हैं। संतोष को लगता है कि पूरा तंत्र बलात्कारी के साथ खड़ा है। इस मामले को लेकर विधानसभा और लोकसभा में हंगामा हुआ है मगर रस्मे अदाएगी के बाद सबकुछ वहीं है। ख़बर की पड़ताल ठप्प है तब भी जब 11 में से 10 लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं। “जिस बालिका गृह में 42 में से 29 लड़कियों के साथ रेप हुआ हो, यह कैसे संभव है कि वहां हर महीने जांच के लिए जाने वाले एडिशनल ज़िला जज के दौरे के बाद भी मामला सामने नहीं आ सका। बालिका गृह के रजिस्टर में दर्ज है कि न्याययिक अधिकारी भी आते थे और समाज कल्याण विभाग के अधिकारी के लिए भी सप्ताह में एक दिन आना अनिनार्य हैं ।” यह हिस्सा संतोष सिंह के पोस्ट का है। संतोष ने लिखा है कि बालिका गृह की देखरेख के लिए पूरी व्यवस्था बनी हुई है। समाज कल्याण विभाग के पांच अधिकारी होते हैं, वकील होते हैं, समाजिक कार्य से जुड़े लोग होते हैं। एक दर्जन से ज्यादा लोगों की निगरानी के बाद भी 29 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है।आप जानते हैं कि हाईकोर्ट के अधीन राज्य विधिक आयोग होता है जिसके मुखिया हाईकोर्ट के ही रिटायर जज होते हैं । बालिका गृहों की देखरेख की जिम्मेवारी इनकी भी होती है। मामला सामने आते ही उसी दिन राज्य विधिक आयोग कि टीम बालिका गृह पहुंची। उसकी रिपोर्ट के बारे में जानकारी नहीं है। संतोष सिंह ने लिखा है कि बालिका गृह को चलाने वाला ब्रजेश ठाकुर पत्रकार भी रहा है और पत्रकारों के नेटवर्क में उसकी पैठ है। संतोष समझना चाहते हैं कि क्या इस वजह से मीडिया में चुप्पी है। बिहार के अख़बारों और चैनलों ने इस ख़बर को प्रमुखता नहीं दी। ज़िला संस्करण में ख़बर छपती रही मगर राजधानी पटना तक नहीं पहुंची और दिल्ली को तो पता ही नहीं चला। ब्रजेश ठाकुर के कई रिश्तेदार किसी न किसी चैनल से जुड़े हैं। ब्रजेश ठाकुर गिरफ्तार भी हुआ मगर तीसरे दिन बीमारी के नाम पर अस्पताल पहुंच गया। अस्पताल से ही फोन करने लगा तो बात ज़ाहिर हो गई। पुलिस को वापस जेल भेजना पड़ा। ब्रजेश ठाकुर के परिवार वालों का कहना है कि रिपोर्ट में उनका नाम इसलिए आया कि उन्होंने पैसा नहीं दिया। न ही समाज कल्याण विभाग के एफ आई आर में उनका नाम है। किसी का भी नाम नहीं है। फिर उन्हें निशाना क्यों बनाया जा रहा है।इस बात की तो पुष्टि हो ही चुकी है कि 29 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है। यह रिपोर्ट तो झूठी नहीं है। ब्रजेश ठाकुर दोषी है या नहीं, यह एक अलग सवाल है मगर जांच नहीं होगी तो पता कैसे चलेगा। जांच कैसे हो रही है, इस पर नज़र नहीं रखी जाएगी तो जांच कैसी होगी, आप समझ सकते हैं। सबके हित में है कि जांच सही से हो। संतोष सिंह ने ब्रजेश ठाकुर के रिमांड न मिलने पर भी हैरानी जताई है। ” ऐसा पहला केस देखने को मिला है जिसमें पुलिस ब्रजेश ठाकुर से पुछताछ के लिए रिमांड का आवेदन देती है लेकिन कोर्ट ने रिमांड की अनुमति नहीं दी। पुलिस ने दोबारा रिमांड का आवेदन किया तो कोर्ट ने कहा कि जेल में ही पूछताछ कीजिए । बाद में पुलिस ने कहां कि जेल में ब्रजेश ठाकुर पुछताछ में सहयोग नहीं कर रहे हैं,, दो माह होने को है अभी तक पुलिस को रिमांड पर नहीं मिला है ।” संतोष की इस बात पर ग़ौर कीजिए। बिहार सरकार भी इस मामले में चुप रही। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने 23 अप्रैल को बिहार समाज कल्याण विभाग को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। फिर भी कोई एक्शन नहीं हुआ। कशिश न्यूज़ ने इसका खुलासा नहीं किया होता तो किसी को भनक तक नहीं लगती और क्या पता बच्चियों के साथ बलात्कार होते रहता। एक महीने बाद समाज कल्याण विभाग एफ आई आर दर्ज करता है। संतोष ने यह भी लिखा है कि मुज़फ्फरपुर की एस एस पी हरप्रीत कौर ने अगर सक्रियता न दिखाई होती तो इस मामले में थोड़ी बहुत कार्रवाई भी नहीं होती। आप इसे चाहे जैसे देखें, मगर सिस्टम में इतना घुन लग गया है कि पेशेवर तरीके से कुछ भी होने की कोई उम्मीद नहीं है। वर्षों मुकदमा चलेगा, किसी को कुछ नहीं होगा। आखिर बिहार का मीडिया और मुज़फ्फपुर का नागरिक समाज इस सवाल पर चुप क्यों है कि एक कैंपस में 29 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है। उसे यह जानने में दिलचस्पी या बेचैनी क्यों नहीं है कि किन किन लोगों के सामने इन्हें डरा धमका कर पेश किया गया। क्या ये बलात्कार के लिए बाहर ले जाई गईं या बलात्कारी बालिका गृह के भीतर आए?

सरकारें चुरा रही हैं नौकरियां, नौजवान खा रहे हैं झांसा

क्या केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने वो कह दिया जो सब जानते हैं। उनका बयान आया कि आरक्षण लेकर क्या करोगे, सरकार के पास नौकरी तो है नहीं। बाद में नितिन गडकरी की सफाई आ गई कि सरकार आरक्षण का आधार जाति की जगह आर्थिक नहीं करने जा रही है। मगर इसी बयान का दूसरा हिस्सा भी था कि सरकार के पास नौकरी है नहीं। क्या वाकई सरकार या सरकारों के पास नौकरी नहीं है या वो देना नहीं चाहती हैं? आइये ज़रा इस पर विचार करते हैं। इस बयान को 5 अगस्त के टाइम्स आफ इंडिया में छपी पहली ख़बर के साथ मिलाकर देखिए। अख़बार ने फरवरी से जुलाई के बीच संसद में अलग अलग विभागों के संदर्भ में दिए गए आंकड़ों को एक जगह जमा कर पेश किया है। इससे यह तस्वीर बनती है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास 24 लाख नौकरियां हैं। जिन पर वे बैठी हुई हैं। भारत के नौजवानों का दिल आज धड़क ही गया होगा जब उनकी नज़र इस ख़बर पर पड़ी होगी। प्राइम टाइम की नौकरी सीरीज़ में हम यह बात पिछले कई महीने से दिखा रहे हैं। अपने फेसबुक पेज @RavishKaPage पर ही पचासों लेख लिख चुका हूं। 24 लाख नौकिरयां होते हुए भी नहीं दी गईं हैं, नहीं दी जा रही हैं या देने में देरी की जा रही हैं, यह सूचना भारत के नौजवानों के उस तबके में है जो इन नौकरियों की तैयारी करते हैं। जो हर दिन भर्तियां निकलने का इंतज़ार करते हैं। जिन्हें पता है कि किस राज्य के लोक सेवा आयोग की भर्ती नहीं निकली है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने जो संकलन किया है उसके अनुसार 10 लाख नौकरियां तो सिर्फ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में हैं। लाखों नौजवान बीटेट और बीएड करके घर बैठे हैं मगर कहीं बहाली नहीं है। जहां कहीं है भी वहां ठेके पर है। पूरा काम करते हैं, पूरी सैलरी नहीं मिलती है। हक की बात करो तो सबको निकम्मा बताया जाने लगता है। क्या वाकई राजनीति को व्हाट्स एप पर भेजे जाने वाले प्रोपेगैंडा पर भरोसा हो चला है कि छात्र इन्हीं में उलझा रहेगा, कभी अपनी नौकरी की न बात करेगा न पूछेगा? अख़बार ने लिखा है कि पुलिस में पांच लाख 40 हज़ार वेकेंसी है। अर्ध सैनिक बलों में 61,509, सेना में 62,084, पोस्टल विभाग में 54,263, स्वास्थ्य केंद्रों पर 1.5 लाख, आंगनवाड़ी वर्कर में 2.2 लाख वेकेंसी है। एम्स में 21, 470 वेकेंसी है। अदालतों में 5,853 वेकेंसी है। अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में 12, 020 वेकेंसी है। इन सबके अलावा रेलवे में 2.4 लाख नौकरियां हैं। चार साल से नौजवान तैयारी करते रह गए, रेलवे में बहाली नाम मात्र की आई। किसी किसी विभाग में तो आई ही नहीं। रेलवे में 2 लाख से अधिक वेकैंसी है। फिर भी डेढ़ लाख भी नहीं निकली है। इस बार ज़रूर फार्म भरे जाने के बाद रेलवे ने सहायक लोको पायलट की संख्या 26,500 से बढ़ाकर 60,000 करने का फैसला किया है। अच्छी बात है मगर सहायक स्टेशन मास्टर की बहाली जैसा न हो जाए। 2016 में 18000 पदों के लिए फार्म भराया मगर नतीजा आया तो 4000 सीट कम हो गई। ऐसी कितनी ही परीक्षाओं के उदाहरण मिल जाएंगे। रेलवे में भी और रेलवे के बाहर भी। रेलवे की परीक्षा के सेंटर दूर दूर दिए गए हैं। सरकार ने इस मामले में कोई राहत नहीं दी है जबकि बड़ी संख्या में ग़रीब छात्र नहीं पहुंच पाएंगे या जाने के लिए कर्ज़ ले रहे हैं। वे अभी भी लिख रहे हैं कि एक दो बार और प्राइम टाइम में दिखा दें, हम लोग वाकई तनाव में हैं। रेल समय से नहीं चलती है। कई दिन पहले निकलना पड़ेगा। इस बीच दूसरी परीक्षाएं छूट जाएंगी। क्या पास के सेंटर पर परीक्षा नहीं हो सकती है? लेकिन रेलवे ने इसकी जगह वेकेंसी बढ़ा दी। बहुत अच्छा किया मगर इससे छात्रों की इस समस्या का समाधान नहीं हुआ कि पैसे के कारण वे सेंटर तक नहीं जा पा रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया का यह डेटा पूरा नहीं है। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी चयन आयोगों के आंकड़े नहीं हैं। इसमें यह भी नहीं है कि कितनी भर्तियां अटकी पड़ी हैं। कितनी भर्तियां तीन तीन साल से अटकी पड़ी हैं। फार्म भरा गया है, परीक्षा नहीं, परीक्षा हो गई है, रिज़ल्ट नहीं, रिज़ल्ट निकल गया है, ज्वाइनिंग नहीं। भारत के सरकार के स्टाफ सलेक्शन कमीशन की भर्तियां कम हो गई हैं। नौजवानों से फार्म भरने के 3000 तक पैसे लिए जा रहे हैं। पैसे लेकर परीक्षा रद्द होती है, वो लौटाए नहीं जाते हैं। नौजवानों को पीस कर रख दिया है इन आयोगों ने। आयोग छोड़िए, कोर्ट की भर्तियां समय से और बिना विवाद के नहीं हो पा रही हैं। बिहार सिविल कोर्ट क्लर्क परीक्षा 2016 का रिज़ल्ट अभी तक नहीं निकला है। हाल ही में नौजवानों ने रिज़ल्ट निकालने को लेकर पटना के गांधी मैदान में प्रदर्शन भी किया था। अगर 24 लाख में राज्यों के आयोगों से आंकड़े लेकर जोड़ दिए जाएं तो यह संख्या पचास लाख तक पहुंच सकती है। 28 जुलाई के दि हिन्दू में विकास पाठक की रिपोर्ट है कि पिछले तीन साल में कालेजों में टेम्पररी से लेकर प्रोफेसर की कुल संख्या में 2.34 लाख की गिरावट आ गई है। 2015-16 में 10.09 लाख शिक्षक थे, 2017-18 में यह संख्या घटकर 8.88 लाख पर आ गई है। रिपोर्टर ने इस का सोर्स ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्टर 2017-18 का बताया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में यह संख्या नहीं है। हमने कई महीने नौकरी सीरीज़ चलाई है। अभी भी चलती रहती है। अभी भी छात्र अपनी नौकरियों को लेकर लिखते रहते हैं। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग इंजीनियरिंग सेवाओं की परीक्षा आयोजित करती है। 2013 की परीक्षा का फार्म दिसंबर 2013 में निकला था। तीन साल बाद यानी अप्रैल 2016 में परीक्षा होती है। अब छात्र जब रिजल्ट के लिए आयोग से संपर्क करते हैं तो कोई जवाब नहीं मिलता है। 2017 से लेकर वे आज तक विरोध प्रदर्शन ही कर रहे हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। राजस्थान, बिहार, बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश से तो आए दिन छात्र लिखते रहते हैं। ज़ाहिर है इन सभी नौकरियों की संख्या को जोड़ लें और कुछ साल पहले की संख्या से मिलाकर देखें तो समझ आएगा कि कितनी नौकरियां कम कर दी गई हैं। कम करने के बाद भी जो सीटें हैं, उन्हें भरा नहीं जा रहा है। क्या ये नौजवान वोट नहीं देते हैं, क्या इन्होंने किसी को वोट नहीं दिया था? सरकारों को कितना वक्त लगेगा कि हर विभाग में ख़ाली पदों के बारे में बताने में? पर यह सवाल पूछ कौन रहा है?क्या नौजवानों को इस सवाल का जवाब चाहिए? यह सवाल पहले वे ख़ुद से पूछें। नोट- ऐसे लेख अंग्रेज़ी अखबारों में कहीं कोने में तो कभी इधर उधर से छप जाते हैं। हिन्दी अखबारों से ऐसे विश्लेषण गायब होते जा रहे हैं। ज़रा ध्यान से पढ़िए। आपकी ही जवानी का सवाल है। नौकरी का तो है ही। u