Saturday 2 December 2017

ग्लोबल व्यापार का इतिहास है सोमनाथ का

1026 में सोमनाथ मंदिर पर महमूद ग़ज़नी हमला करता है। इस घटना को लेकर आज तक नई नई व्याख्याएं होती रहती हैं और उस पर धारणाओं की परतें चढ़ाई जाती रहती हैं। उस वक्त भी और उसके बाद की सदियों में सोमनाथ मंदिर को लेकर अलग अलग लिखित ग्रंथों में दर्ज किया जाता है। फ़ारसी, अरबी, संस्कृत, जैन, राजपूत दरबारों की वीर-गाथाएं, ब्रिटिश शासक और इतिहासकार, स्वतंत्रता आंदोलन के दौर के राष्ट्रवादी नेता। ये सब सोमनाथ को लेकर स्मृतियां गढ़ रहे थे। इतिहासकार रोमिला थापर ने इन अलग अलग ग्रंथों, दस्तावेज़ों और इतिहास लेखन में सोमनाथ मंदिर की घटना को कैसे दर्ज किया गया है, उसका अध्ययन किया है। वो पहले ही साफ कर देती हैं कि घटना क्यों हुई, किस मकसद से हुई, इसकी पड़ताल नहीं कर रही हैं बल्कि उसके बाद वो कैसे स्मृतियों और इतिहासलेखन में दर्ज होती है, उसे समझने का प्रयास कर रही हैं। सोमनाथ मंदिर को लेकर जो धारणाएं बनती हैं या बनाई जाती हैं, जो दावे किए जाते हैं, उन्हीं सबको हम नैरेटिव, वृतांत या उससे भी सरल बहस कहते हैं। रोमिला थापर कहती हैं कि मैं यह देखना चाहती हूं कि यह घटना किस तरह स्मृतियों में प्रवेश करती है, वहां उसका स्वरूप कब कब कैसे कैसे बदलता है और यही यात्रा इतिहासलेखन के ज़रिए यह घटना कैसे तय करती है। क्यों लोगों की स्मृतियों का सोमनाथ, इतिहासलेखन में दर्ज सोमनाथ से अलग है। इसे समझने की ज़रूरत है। आप देख ही रहे हैं, आपके समय में भी इतिहास को लेकर यही होता रहा है। हमने अतीत में ही स्मृतियों को इतिहास की तरह नहीं गढ़ा है बल्कि अब तो हम टीवी के सामने बैठकर इतिहास की नई नई स्मृतियों को गढ़ रहे हैं। रानी पद्मावती के बारे में कह रहा हूं। रोमिला थापर की यह किताब 2004 में आई थी। SOMNATH- The Many Voices of a History , पेंग्विन इंडिया से छपी यह किताब तब 375 रुपये की थी। अगर मंदिर कई बार टूटा और बना तो तोड़ने वाले कौन थे और प्रभावित होने वाले कौन थे। दोनों के बीच क्या संबंध थे और क्या विध्वंस या पुनर्निमाण के बाद दोनों के संबंध बदलते हैं? क्या सिर्फ इसमें दो ही पक्ष थे जिसे हम आमतौपर मुस्लिम और हिन्दू समझते हैं या दो से ज़्यादा पक्ष थे? तुर्क-फारसी दस्तावेज़ों में जो उस वक्त की ग़ज़नवी राजनीति को दर्ज कर रहे थे इस घटना को उस समय और उसके बाद के समय में अलग अलग तरीके से महत्व दिया गया है। शुरू में सोमनाथ मंदिर में किसी मूर्ति थी इस पर ज़ोर नहीं है, कितना धन था, इस पर है। बाद में इस घटना को भारत में इस्लामिक शासन की बुनियाद डालने के रूप में दर्ज किया जाता है। वो दौर पश्चिम और मध्य एशिया में अशांति का था,बग़दाद में ख़लिफ़ा को चुनौती दी जा रही थी, इस्लामिक जगत में बहुत कुछ हो रहा था। तुर्क वहां से निकल अपना विस्तार कर रहे थे। घटना के 400 साल बाद के संस्कृति दस्तावेज़ों में इस बात का ज़िक्र है कि सोमनाथ मंदिर सिर्फ मंदिर नहीं था, उस वक्त अपने इलाके का राजनीतिक प्रशासक था जो फारसी व्यापारियों को कारोबार करने का परमिट भी जारी करता था। फारसी व्यापारियों से संबंध बहुत मधुर थे। 1951 में वहां उत्खनन होता है जिससे कई बार धारणाओं पर विराम लगता है। टूटने के बाद जो निर्माण होता है उससे पता चलता है कि मंदिर कई बार नहीं बल्कि तीन बार टूटा या तोड़ा गया। जबकि धारणाओं में मंदिर का विध्वंस कई बार होता है। उत्खनन से यह भी पता चलता है कि ग्रंथों में जिस तरह से मंदिर को विशाल रूप में दर्ज किया गया है, वास्तविक रूप उससे काफी अलग है। जैन व्यापारियों और दरबारी लेखकों के दस्तावेज़ों में भी मंदिर को लेकर अलग-अलग बातें मिलती हैं। 19 वीं सदी के शुरू में महमूद ग़ज़नी को लेकर जो मौखिक किस्से हैं उनका संग्रह किया जाता है, उन किस्सों से अलग ही इतिहास पता चलता है। आपको यही समझना है हर किस्सा इतिहास नहीं होता मगर वो इतिहास का हिस्सा हो जाता है। इतिहास वहीं तक है जहां तक प्रमाण हैं। बाकी किस्सों का इतिहास है मगर एक वो वास्तविक इतिहास नहीं है। क्योंकि कई किस्सों में पीर, फ़क़ीर, साधु और गुरु महमूद की तारीफ़ भी करते हैं। रोमिला थापर इन अलग अलग किस्सों को आमने-समाने रखकर सोमनाथ मंदिर के विध्वंस और पुनर्निमाण के इतिहास को समझने का प्रयास कर रही हैं। क्या इस घटना को भारत के अलग अलग समुदायों ने अलग-अलग निगाहों से देखा, क्या हमला सिर्फ धार्मिक शत्रुता के कारण हुआ, क्या राजनीतिक कारणों से इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर दर्ज किया जाता रहा है? इन सब सवालों की पड़ताल करते हुए रोमिला थापर बेहद सरल और तरल अंग्रेज़ी में आपके लिए यह किताब लिखती हैं। पिछले सौ सालों में सोमनाथ और महमूद ग़ज़नी को लेकर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। रोमिला हैरानी ज़ाहिर करती हैं कि इतने सारे लेखन के बाद भी संस्कृत ग्रंथों में सोमनाथ की घटना कैसे दर्ज है, इस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। 19 वीं सदी में ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस में सोमनाथ मंदिर को लेकर ख़ूब बहस होती है, यहीं से वो नैरिटव मज़बूत होकर निकलती है कि महमूद ग़ज़नी के हाथों हिन्दुओं ने काफी प्रताड़ना झेली है। इस बहस के दौरान हिन्दू और मुस्लिम पीड़ित और आक्रांता की तरह उभरते हैं। यह पक्ष इतिहास की बाक़ी वास्तविकताओं पर हावी हो जाता है। रोमिला थापर लिखती हैं कि ज़्यादातर लेखन में मुस्लिम दस्तावेज़ों को ही महत्व दिया जाता है। गुजरात में चालुक्य राज के इतिहासकार ए के मजुमदार कहते हैं कि हिन्दू दस्तावेज़ों में मंदिर के विध्वंस की घटना को महत्व ही नहीं दिया गया है। जो भी लिखा गया है वह मुस्लिम दस्तावेज़ों के आधार पर। बीसवीं सदी में आज़ादी के बाद और ख़ासकर बाबरी मस्जिद ध्वंस के आस-पास से सोमनाथ मंदिर को लेकर फिर से विध्वंस का नैरेटिव हावी हो जाता है। 1951 में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निमाण होता है। इसके पीछे के एम मुंशी का बहुत बड़ा प्रयास था। उनकी सोमनाथ पर किताब भी है। सोमनाथ भी त्रिवेणी के संगम पर है। इस जगह को प्रभास (prabhasa) भी कहते हैं। यहां पर चंद्रगुप्त मौर्य के ईरानी गवर्नर ने सिंचाई के लिए बांध का निर्माण किया था, जो भारत में सिंचाई के लिए बांध बनाने के शुरूआती उदाहरणों में से एक है। उस ईरानी गवर्नर के ईरान से भी अच्छे संबंध थे। अशोक के शिलालेख भी यहां गिरनार में मिलते हैं। सातवीं सदी में ह्वेन सांग काठियावाड़ की यात्रा के दौरान लिखता है कि यहां बौद्ध मठों की संख्या कम होने लगी है, शैव और वैष्णवों की संख्या बढ़ने लगी है। ह्वेन सांग प्रभास में किसी मंदिर का ज़िक्र नहीं करता है। 19 वीं सदी के शुरू में ऐतिहासिक स्थलों का सर्वे करते हुए w.postan ने लिखा था कि सोमनाथ का मंदिर बौद्ध ढांचे पर बना था। जिसकी कभी पड़ताल नहीं हुई, रोमिला थापर कहती हैं कि इसकी पड़ताल की जा सकती थी। आठवीं सदी में सौराष्ट्र के वलाभी में अरबों का हमला होता है,वहां के शासक उस उस आक्रमण का मुकाबला करते हैं और रोक देते हैं। बाद में अरब हमलावार व्यापारी के रूप में बसने लगते हैं और विजय की इच्छा का त्याग कर देते हैं। गुजरात के सुदूर दक्षिण में राष्ट्रयुक्त के ग्रांट यानी अनुदानों से पता चलता है कि बौद्ध, जैन मतावलंबियों के साथ साथ अरबों को भी ग्रांट मिलता है। वी के जैन ने अपनी किताब Trade and Traders in Western India में लिखा है कि ये अरब स्थानीय संस्कृति में रच-बस गए और स्थानीय लोगों से वैवाहिक संबंध भी बनाया। इनका ओमान, बसरा, बग़दाद और यमन से व्यापारिक लिंक बना रहा।संस्कृत के दस्तावेज़ों में अरबों का ज़िक्र ‘ताजिक’ के रूप में है, जिन्हें स्थानीय प्रशासक के रूप में भी दर्ज किया गया है। ये लोग उस इलाके के शासक राष्ट्रयुक्तों के गवर्नर भी बनाए जाते हैं। एक ज़िक्र यह भी मिलता है कि राष्ट्रयुक्त राजा ने एक ताजिक गवर्नर को मुंबई के उत्तर स्थित आज के संजन का प्रभारी बना दिया था, इस गवर्नर ने एक गांव को मंदिर बनाने के लिए अनुदान भी दिया था। सोमनाथ मंदिर जहां हैं वहां समुद्र के कारण कई तरह की गतिविधियां हो रही थीं। काफी चहल-पहल का इलाका था। सौराष्ट्र में कभी कोई बड़ा राजवंश नहीं रहा। छोटे और मध्यम स्तर के राजा ही रहे हैं। नौवीं सदी का सैंधव सामंत( समझने के लिए छोटा राजा भी कह सकते हैं) सोमेश्वर के एक ब्राह्मण को ज़मीन दान देता है। ग्रांट के रूप में यह दर्ज है। इसी में ज़िक्र है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय सौराष्ट्र में तीर्थ के लिए आता है, सौमेश्वर भी जाता है। मगर इन सबमें किसी में सोमनाथ के मंदिर का ज़िक्र नहीं है। बहुत बाद के दस्तावेज़ों में हेमचंद्र ने लिखा है कि जूनागढ़ के राजा तीर्थयात्रियों को प्रभास जाने से रोक दिया है। उसने ब्राह्मणों की हत्या की है, पवित्र स्थानों को भंग कर दिया है और बीफ खा लिया है। रोमिला कहती हैं कि शत्रुओं के बारे में कई बार इस तरह की बातें बना दी जाती थीं। रोमिला थापर अपनी किताब में जो भी कह रही हैं, उसी पन्ने के नीचे उसका प्रमाण भी देती हैं कि कहां से उन्हें यह बात पता चली है। हम यहां साफ कर दें कि रोमिला थापर की कोई सेना नहीं हैं। आप उनकी किताब में लिखी गई बातों को न मानना चाहें तो बिल्कुल डरने की ज़रूरत नहीं हैं। वह कुछ नहीं करेंगी। मैंने उन्हीं का लिखा हुआ हिन्दी में पेश कर रहा हूं। रोमिला लिखती हैं कि एक जगह यह लिखा हुआ है किन भगवान सोम ने चालुक्य राजा मुलाराजा से कहा कि वह जूनागढ़ के राजा ग्रहारिपु को परास्त करे और प्रभास को उसके चंगुल से मुक्त करे। मुलाराजा ने यही किया और सोमेश्वर जाकर पूजा की। 10 वीं से 13 वीं सदी तक गुजरात में चालुक्य ही बड़े शासक थे, जिन्हें आज का सोलंकी कहा जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि मुलाराजा ने ही सोमनाथ मंदिर का निर्माण कराया। मुलाराजा 997 में मर गए थे। मंदिर से मुलाराजा के संबंध होने के बहुत ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं, हो सकता है उन्होंने किसी छोटे मंदिर का पुनर्निमाण कराया हो। अगर मुलाराजा ने प्रभास में सोम का मंदिर बनाया भी होगा तो वह छोटा ही होगा क्योंकि अन्य जगहों पर उनके बनाए मंदिर छोटे ही हैं। दसवीं सदी से सोमनाथ मंदिर के होने के स्पष्ट प्रमाण मिलने लगते हैं। अल बरूनी अपने संस्मरणों में ज़िक्र करता है, शाही तीर्थ यात्राओं में ज़िक्र आने लगता है। मंदिर के उत्खनन से भी यही समय साबित होता है। दसवीं सदी से पहले सोमनाथ के शिव मंदिर का ज़िक्र नहीं मिलता है। उस वक्त के सामंतों, ज़मींदारों जैसे वघेला, चुदास्मा, अभिहार, चावड़ा आदि की भूमिका मंदिर के प्रति बहुत सकारात्मक नहीं दिखती है। वे मंदिर प्रशासन और तीर्थयात्रियों को तंग करते हैं। काठियावाड़ के शासक की चालुक्य राजाओं से काफी शत्रुता रहती थी। रोमिला थापर गुजरात स्टेट गजेट के हवाले से लिखती हैं कि रनकादेवी की शादी चालुक्य राजा से होनी थी मगर किसी मामूली राजा से शादी हो जाती है। चालुक्य राजा जयसिम्हा नवघाना पर हमला कर देता है और रनकादेवी को अपने कब्जे में ले लेता है। रास्ते में रनकादेवी सती हो जाती हैं। H.C.RAY DYNASTIC HISTORIES OF NORTH INDIA में लिखते हैं कि अभिरा राजाओं को लूटपाट के कारण मलेच्छ कहा जाता था। 1000 से 1300 के बीच व्यापार के कारण गुजरात में काफी समृद्धि आती है। समृद्धि का यह दौर गुजरात को ग्लोबल बना देता है। यह वही समय है जब महमूद ग़ज़नी का हमला हो चुका था। अल बरूनी कहता है कि उस हमले के बाद वहां की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई मगर रोमिला थापर कहती हैं कि ऐसा नहीं हुआ। चालुक्य राजाओं के अलावा गुजरात में व्यापारियों ने भी सिंचाई के खूब संसाधन बनवाए। इस कारण सूखाग्रस्त सौराष्ट्र इलाके में खेती में भी काफी तरक्की हुई। चालुक्य राजा सोमनाथ पाटन पर छोटे-छोटे राजाओं के आक्रमण से परेशान रहते थे। वे तीर्थयात्रियों से टैक्स भी लेते थे और उन्हें लूटते भी थे। समुद्री यात्रा के दौरान लूट-मार की घटना आम थी। इसके बाद भी हर तरह से सोमनाथ आंतरिक और सामुद्रिक व्यापार का एक बड़ा केंद्र था। 9वीं से 15 वीं सदी का समय इस इलाके की अपार समृद्धि का समय था। वहां पर अलग अलग धर्मों और जगहों से लोग आकर बस रहे थे, कारोबार कर रहे थे और हर तरह का रिश्ता बना रहे थे। रोमिला थापर यह भी लिखती हैं कि 12वीं सदी में महमूद गौरी हमला करता है तो एक हिन्दू व्यापारी वासा अभिहार की संपत्ति ज़ब्त नहीं कर पाता क्योंकि उसका ग़ज़नी मे भी काफी बड़ा कारोबार था। ग़ज़नी एक इलाक़े का नाम है। 14 वीं सदी में एक जैन व्यापारी जगादु ने अपने व्यापारी हिस्सेदार के लिए मस्जिद का निर्माण कराया था। ये सब अपवाद नहीं थे। व्यापारिक कारण रहे होंगे मगर एक दूसरे की संस्कृतियों और आस्थाओं को जगह देने की भावना काफी मज़बूत थी। मार्को पोलो ने भी लिखा है कि सोमनाथ के लोग व्यापार पर आश्रित हैं। होर्मुज़ से क़ीमती घोड़े का कारोबार ख़ूब होता था। भारत के घोड़े अच्छी नस्ल के नहीं होते थे। पश्चिम और मध्य एशिया से कारोबार बढ़ने के कारण उस वक्त के भारत को काफी फायदा हुआ था। इसके कारण होर्मुज और ग़ज़नी जैसे शहरों में भारतीय व्यापारियों के एजेंट भी जाकर बसे। उनका इतिहास खोजा जाए तो कितना दिलचस्प किस्सा निकलेगा। इस दौर में जैन व्यापारी काफी प्रभावशाली हुए और खूब सारे जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। 15 वीं सदी से सोमनाथ से व्यापार का केंद्र बदलने लगा। उत्तर पश्चिम दर्रों से व्यापार होने लगा, अरब के व्यापारी सीधे उन रास्तों से आकर कारोबार करने लगे। उन्हें अब बिचौलियों की ज़रूरत नहीं थी। व्यापार के घटने का असर मंदिरों पर दिखने लगा जिन्हें काफी फायदा पहुंचा था। कहा जाता है कि इन्हीं हमलो के कारण व्यापार घट गया। हमले ज़रूर हुए मगर हमलों के कारण व्यापार नहीं घटा। अमीर मंदिरों पर हमले कभी कभार ही हुए। फारसी दस्तावेज़ों में बार बार बताया जाता है कि सोमनाथ को मस्जिद में बदल दिया गया है लेकिन रोमिला थापर कहती हैं कि इन हमलों के बाद भी कभी वहां होने वाली पूजा में रूकावट नहीं आई। वे नहीं मानती कि सोमनाथ को मस्जिद में बदला गया था। उस वक्त गुजरात में बसने वाले ज़्यादतर इस्माइली मुस्लिम थे, जिनकी अपनी मस्जिदें होती थीं। सुन्नी मुस्लिमों का इस्माइलियों ने काफी विरोध किया था। खोजा मुस्लिम इस्माइलियों के करीब थे, बोहरा मुस्लिम वैष्णवी परंपरा के करीब लगते थे। वे अवतार की परंपरा को मानते हैं और हिन्दू वसीयतों का पालन करते थे। दोनों का सल्तनत राजनीति में काफी वर्चस्व बढ़ गया था। आपने देखा कि शुरू में तुर्क हमलावर बनकर आए, बाद में कारोबारी हो गए। जल्दी ही उनका इरादा बदल गया और वे उस इलाके की व्यापारिक समृद्धि का हिस्सेदार बने। खोजा, बोहरा और इस्माइली, तुर्क मुसलमानों से काफी अलग थे। एकतरफा व्यापारिक रिश्ता नहीं था। जैन व्यापारियों ने भी उसी तरह खाड़ी के देशों में अपना दबदबा बढ़ाया। रोमिला थापर लिखती हैं कि खाड़ी के देशों में जाने वाले भारतीयों ने कुछ लिखा हुआ नहीं छोड़ा कि उन्होंने वहां क्या देखा, अगर होता तो कितनी दिलचस्प बातें पता चलती कि उनके यहां से लोग भारत आकर क्या देख रहे हैं और भारत के लोग अरब जाकर क्या देख रहे हैं। काश, लिखा होता। कितनी भ्रांतियां दूर हो जातीं। अब लेख काफी लंबा हो गया है। इसलिए रोक रहा हूं। अगली बार आगे का हाल लिखूंगा। अभी तक मैंने 36 पन्ने ही पढ़े हैं। 200 पेज का पढ़ना बाकी है। इतिहास का तलवार के दम पर नहीं पढ़ा जाता है। उसके लिए पन्ने पलटे जाते हैं।

Saturday 25 November 2017

गुजरात चुनाव में बीजेपी का टिकट- कटेगा, मिलेगा और फिर कटेगा

बाजेपी को 2007 में 117 विधायक मिले थे। इनमें से 40 से अधिक विधायकों का टिकट 2012 में काट दिया गया था। इस बार कितनों का कटेगा? हर पार्टी अपनी जीत के लिए रणनीति बनाती है। गुजरात में बीजेपी की जीत की रणनीति एक अहम हिस्सा है विधायकों का टिकट काटना। इस बार भी खूब कटेंगे। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे दल विधायकों के टिकट नहीं काटते हैं। बीजेपी इतना टिकट क्यों काटती है? क्या उसके विधायक जीत कर काम नहीं करते हैं, जनता का सामना नहीं कर सकते, या विधायकों को पता है कि दोबारा टिकट तो मिलना नहीं तो काम क्यों करें? हमने विधानसभा वार नामों की सूची बनानी शुरू की। 55-56 सीटों तक जाकर रूक गया। http://www.elections.in/gujarat पर जाकर देखने लगा। बेशक मुझसे ग़लती हो सकती है इसीलिए आगे तक नहीं देखा। लेकिन जो नतीजे आए वो दिलचस्प हैं। आप उन्हें देखते हुए गेस कर सकते हैं कि किस सीट पर किसका टिकट कटने वाला है और टिकटों की सूची आने पर मिला भी सकते हैं कि गेस सही हुआ या नहीं। अच्छा होता कि सभी सीटों का 2002, 2007 और 2012 के जीते उम्मीदवारों को देख पाता। पर कोई बात नहीं। साबरमती विधानसभा में बीजेपी ने 2002 से कभी किसी उम्मीदवार को दोबारा टिकट नहीं दिया है। इस बार कहीं 2012 के जीते उम्मीदवार का टिकट न कट जाए! धनेरा विधानसभा में भी तीनों चुनाव में अलग अलग उम्मीदवार उतारे हैं। इस सीट पर 2012 में टिकट बदला तो बीजेपी का उम्मीदवार हार गया। इस बार भी यहां किसी नए को ही मिल सकता है। भुज में भाजपा ने 2007 के विधायक को 2012 में नहीं दिया। क्या 2012 के विधायक को टिकट मिलेगा? वाव विधानसभा क्षेत्र में भी भाजपा ने 2012 में 2007 के विधायक का टिकट काट दिया। 2012 वाले को 2017 में टिकट मिलेगा? वडगाम- 2002 में बीजेपी ने श्रीमाली बाबुलाल चेलाभाई को टिकट दिया। कांग्रेस से हार गए। 2007 में बीजेपी ने फकीरभाई राघाभाई वाघेला को टिकट दिया वो जीत गए। राधा भाई 2012 में कांग्रेस से हार गए। मुमकिन यहां का बीजेपी उम्मीदवार नया होगा। पालनपुर विधानसभा- 2002 में बीजेपी के कचोराया कांतिलाल धर्मदास जीते थे। 2007 में बीजेपी ने इन्हें टिकट नहीं दिया। गोविंदभाई माधवलाल प्रजापति को टिकट दिया उन्हें 66,835 वोट मिला और जीत गए, उन्हें 2012 में टिकट मिल गया मगर वे कांग्रेस से हार गए। यहां बीजेपी अबकी बार नए उम्मीदवार को टिकट दे सकती है। दीसा से 2012 में बीजेपी ने 2007 में जीते हुए विधायक का टिकट काट दिया। नया उम्मीदवार कांग्रेस से हार गया। 2014 में जब उपचुनाव हुआ तो बीजेपी के लेबाभाई हार गएं। इसबार यहां से बीजेपी का नया उम्मीदवार हो सकता है। देवदर विधानसभा- 2007 में बीजेपी के विजयी विधायक का टिकट 2012 में कट गया। 2012 में केशाजी शिवाजी चौहान जीत गए। वोट में 27000 की वृद्धि हुई। यहां टिकट कट सकता है? राधनपुर विधानसभा- 1998 से बीजेपी जीत रही है मगर यहां 2007, 2012 में अलग अलग उम्मीदवारों को टिकट दिया। इसलिए इस बार 2012 के उम्मीदवार का टिकट कट सकता है। चनाश्मा विधान सभा- यहां 2012 में भाजपा ने 2007 के जीते हुए विधायक को टिकट नहीं दिया। 2002 के उम्मीदवार को बीजेपी ने 2007 में यहां टिकट नहीं दिया था। यहां के विधायक का टिकट बदल सकता है। पाटन- 2002, 2007, 2012 में बीजेपी ने अलग अलग उम्मीदवार उतारे और सभी जीते। 2002 में आनंदीबेन पटेल इसी सीट से जीती थीं। खेरालु विधानसभा- बीजेपी ने यहां 2002 के उम्मीदवार का 2007 में टिकट काट दिया मगर 2012 में 2007 वाले को टिकट दिया। बीजेपी जीत गई। इस बार इनके टिकट कटने की उम्मीद की जा सकती है। ऊंझा में नारायणभाई लल्लुदास पटेल को 2012 में दिया, 2007 में दिया। दोनों बार जीते। इस बार लल्लुदास जी को टिकट मिलेगा? विसनगर विधानसभा में 2007 और 2012 में टिकट नहीं बदला है। वही उम्मीदवार जीत रहा है। इनका टिकट बदलेगा? मेहसाणा से 2012 में नितिन पटेल जीते। मगर यहां से उन्हें 2007 के जीते हुए उम्मीदवार का टिकट काट कर उतारा गया था। क्या नितिन पटेल इस बार भी मेहसाणा से लड़ेंगे? इदर विधानसभा से 1998 से बीजेपी के रमनभाई वोरा ही जीत रहे हैं। कभी टिकट नहीं बदला। ज़रूर यह उम्मीदवार ज़बरदस्त रहा होगा, क्या इस बार भी इन्हें टिकट मिलेगा या कट जाएगा? जमालपुर से अशोक भट्ट 2002 से जीत रहे हैं। कहीं इनका नंबर तो नहीं कटेगा? दासक्रोई का उम्मीदवार भी 2002 से लगातार जीत रहा है। क्या यहां का उम्मीदवार बना रहेगा या किसी नए को मिलेगा? कलोल गांधीनगर से 2007 और 2012 में एक ही उम्मीदवार जीत रहा है. क्या यहां से उम्मीदवार बदलेगा? एलिस ब्रीज विधानसभा से बीजेपी के रमेश शाह 2007 और 2012 में जीते हैं। इस बार मिलेगा? असारवा में 2007 के जीते उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं मिला। जबकि प्रदीपसिंह भगवतसिंह ज़डेजा 2002 और 2007 में जीत चुके थे। इस बार 2012 के विधायक को टिकट मिलेगा या कटेगा? दासदा विधानसभा में 2007 में जीते हुए उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं दिया। बीजेपी जीत गई। क्या इस बार इनका नंबर कटेगा? बधवान विधासभा से 2007 और 2012 में भाजपा उम्मीदवार जीत रही हैं। क्या 2017 में टिकट मिलेगा? चोटिला में 2007 के उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं दिया। 2017 में? मोरबी में 2007 से कांतिलाल शिवलाल अमृतिया ही जीत रहे हैं। क्या चौथी बार टिकट मिलेगा। इस बार कट जाने के चांस हैं। विधानसभा क्षेत्र के नामों में त्रुटी हो सकती है। इसे कहीं और छापने से पहले एक बार अपना होमवर्क भी कर लें। इस आधार पर देखा जा सकता था कि बीजेपी कहां कहां उम्मीदवार बदलने वाली है। जब पार्टी इतना काम करती है, सरकार इतना काम करती है तो 30 से 35 उम्मीदवारों का टिकट काटने का क्या मतलब है? क्या पार्टी और सरकार काम करती है मगर विधायक काम नहीं करते हैं? ऐसा कैसे हो सकता है। फिर से एक बार टिकट सब काटते हैं मगर गुजरात में बीजेपी जिस तादाद में टिकट काटती है उस तादाद में कोई नहीं काटता है। आप इस रणनीति के ज़रिए उम्मीदवार तो बदल देते हैं, नए को भी मौका देते हैं मगर जनता किससे हिसाब मांगे।

Monday 13 November 2017

अपनी तरह की यह आख़िरी फ़िल्म है। जब तक ऐसी कोई दूसरी फ़िल्म नहीं बनती है, इसे अंतिम फ़िल्म कहने का जोखिम उठाया जा सकता है। शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने भीतर किसी फ़िल्मकार को इतनी जगह देगा जहां से खड़ा होकर वह अपने कैमरों में उसके अंतर्विरोधों को दर्ज करता चलेगा। यह फ़िल्म राजनीति के होने की प्रक्रिया की जो झलक पेश करती है, वह दुर्लभ है। बहुत पीछे के इतिहास में जाकर नहीं बल्कि तीन चार वर्षों के इतिहास में जाकर जब AN INSIGNIFICANT MAN के पर्दे पर दृश्य चलते हैं तो देखने वाले के भीतर किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। यह फ़िल्म एक दर्शक के तौर पर भी और एक राजनीतिक जीव होने के तौर पर भी देखने वाले को समृद्ध करेगी। हम प्रिंट में ऐसे लेख पढ़ते रहे हैं मगर सिनेमा के पर्दे पर इस तरह का सजीव चित्रण कभी नहीं देखा। मुमकिन है सिनेमा की परंपरा में ऐसी फिल्में बनी हों, जिनके बारे में मुझे इल्म नहीं है। ख़ुश्बू रांका और विनय शुक्ल जब यह फ़िल्म बना रहे थे तब उनसे मिलने का मौका मिला था। तीस साल से भी कम के ये नौजवान जोड़े रात रात भर जाकर आम आदमी पार्टी के बनने की प्रक्रिया को अपने कैमरे में दर्ज कर रहे थे। दर्ज तो कई चैनलों ने भी किए मगर सबने अपने फुटेज का स्वाहा कर दिया, कभी लौट कर फिर से उन तस्वीरों को जोड़ कर देखने की कोशिश नहीं की। इसका कारण भी है। सबसे पहले मीडिया के पास यह सब करने की समझ और योग्यता नहीं है, बाद में लोगों की कमी और संसाधन की कमी का मसला भी शामिल हो जाता है। image आम आदमी पार्टी नई बन रही थी, राजनीति की पुरानी परिपाटी को चुनौती दे रही थी और देने का दावा कर रही थी, शायद इसी जोश में पार्टी ने भीतर आकर ख़ुश्बू और विनय को शूट करने का मौका दे दिया होगा। जितना भी और जहां जहां मौका मिला, उससे आप राजनीतिक प्रक्रिया को काफी करीब से देख सकते हैं। दूसरे दल तो इतनी हिम्मत कभी नहीं करेंगे। इस फ़िल्म को देखते हुए आम आदमी पार्टी के नेता और समर्थकों को असहजता हो सकती है,मगर ऐसी भी असहजता नहीं होगी कि वे फ़िल्म से ही करताने लगें। यह फ़िल्म उनके इरादों को मज़बूत भी करेगी लेकिन पहले धीरे-धीरे कांटे भी चुभाती है। हंसाती भी है और रूलाती भी है। इस फिल्म के कई प्रसंग ख़ूब हंसाते हैं। आप ख़ुद पर, मीडिया पर और नेताओं पर भी हंस सकते हैं। अरविंद केजरीवाल इस फ़िल्म के मुख्य किरदार हैं। एक मामूली इंसान। यह फ़िल्म उन्हें नायक या महानायक की निगाह से नहीं देखती है। एक कैमरा है जो चुपचाप उन्हें देखता रहता है। घूरता रहता है। वह देख रहा है कि कैसे एक मामूली आदमी राजनीति में कदम रख रहा है,हल्का लड़खड़ाता है, फिर संभलता है और दिग्गजों के अहंकार को मात देता है। कैसे उसके सिद्धांत और व्यवहार आपस में टकराते हैं। अरविंद केजरीवाल के आस-पास किस तरह अंतर्विरोध पनप रहे हैं, वे कैसे निकलते हैं और उसके शिकार होते हैं। ख़ुश्बू और विनय ने उसे बहुत ख़ूबसूरती से पकड़ा है। उनके सबके बीच अरविंद कैेसे टिके रहते हैं, नेता होने की अपनी दावेदारी कभी नहीं छोड़ते हैं। कैमरे का क्लोज़ अप कई बार उनके इरादों को पकड़ता है। हारते हुए देखता है और फिर जीतते हुए भी। पब्लिक के सामने जाने से पहले मंच के पीछे नेता का भाव क्या होता है,वह किन बातों को सुनता है और पब्लिक के बीच कैसे रखता है, यह सब आप देखते हुए रोमांचित हो सकते हैं। नेता होने का कौशल क्या होता है,आपको पता चलेगा। यह सब आप दूसरे दलों में या अब आम आदमी पार्टी में भी होते हुए नहीं देख पाएंगे। दरअसल आप इस फिल्म को सिर्फ अन्ना आंदोलन के दौर की निगाह और स्मृतियों से नहीं देख पाएंगे। योगेंद्र और प्रशांत का अलग होना, कुमार विश्वास से दूरी का बनना यह सब तो नहीं है मगर उन्हें देखकर लगता है कि यह सब अलग होने वाले हैं या किए जाने वाले हैं। दरार सिर्फ भीतर से नहीं आ रही थी, बाहर से भी चोट करवाए जा रहे थे ताकि यह नया संगठन उभरने से पहले टूट जाए। आज तक यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी। इस फ़िल्म में मीडिया के भीतर मीडिया का संसार दिखता है। आम आदमी पार्टी अपना मीडिया रच रही थी तो मीडिया भी आम आदमी पार्टी रच रहा था। दोनों अपनी अपनी धार से एक दूसरे को काट भी रहे थे, तराश भी रहे थे। उसी दौरान मीडिया आम आदमी पार्टी को कुचलने का हथियार भी बनता है। वो पुराने दलों के साथ खड़ा दिखाई देने लगता है। यह सब इतनी तेज़ी से बदलते हैं कि आपकी स्मृतियां सहेज कर रखने में असफल हो जाती हैं। चुनावी सर्वे आते हैं और खारिज करते है, उनके आने और ध्वस्त हो जाने के बीच एंकर या रिपोर्टर किस तरह कैमरे के सामने निहत्था और नंगा खड़ा है, ख़ुश्बू और विनय को यह सब पकड़ने के लिए शुक्रिया अदा करना चाहिए। यह फिल्म बता रही है कि कैसे मीडिया भी अपने वक्त की राजनीति को पकड़ने में खोखला हो जाता है। खंडहर की तरह भरभरा कर गिर जाता है। एंकरों के वाक्य कैसे चतुराई से बदलते चले जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे देखने वाले पर एक अहसासन करते हैं। ख़ुद जोकर लगते हैं और दर्शकों को ख़ूब हंसाते हैं। बाद में वही मीडिया आप के ख़िलाफ़ दूसरे दलों का हथियार बन जाता है। यह फ़िल्म सबको हंसाती है। दर्शक को,आप के कार्यकर्ता को, समर्थक को, मतदाता को, विरोधी को और मीडिया को भी। यह फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक अरविंद केजरीवाल को महानायक या खलनायक के चश्मे से कहीं नहीं देखती है जैसा कि उस वक्त मीडिया और इस वक्त मीडिया करता है। बस एक कैमरा है जो चुपचाप देख रहा है कि क्या यह मामूली सत्ता के जमे जमाए खिलाड़ियों को मात दे सकता है, इस प्रक्रिया में वह ख़ुद भी मात खाता है मगर मात दे देता है। बिजली और पानी का बिल आधा करने का वादा पूरा कर देता है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को यह फ़िल्म देखनी चाहिए। टॉनिक का काम करेगी। एक राजनीतिक दल वैसे भी दिन रात अपनी आलोचनाओं से घिरा रहता है, उसी में जीता मरता है तो फिर इस फ़िल्म के साथ भी उसे जीना-मरना चाहिए। इस फ़िल्म से उभरने वाली नॉस्ताल्जिया उभरेगी आप के नेताओं को भी हंसाएंगी, रूलाएगी और चुप कराएगी। ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। image इस फिल्म में योगेंद्र यादव अपने आप दूसरे नायक के रूप में दिखते हैं। फिल्म की एडिटिंग उन्हें हमेशा अरविंद से दूर रखती है और दूसरे छोर पर रखती है। जीवंत फुटेज की एडिटिंग का कमाल देखिए। ऐसा लगता है कि फिल्म आगे होने वाले घटनाक्रम का दस्तावेज़ पेश कर रही हो। योगेंद्र के बाहर निकाले जाने या बाहर हो जाने का रास्ता ढूंढ रही हो। ख़ुश्बू और विनय ने फिल्म की एडिटिंग इस तरह की है कि दोनों साथ-साथ चलते हुए भी अलग लगें। राजनीति में जो नया होता है उसे नैतिकता ही सबसे पहले मारती है। छोटी छोटी नैतिकताएं उनका बड़ा इम्तहान ले लेती हैं। जबकि जमे जमाए दल ऐसी नैतिकताओं को धुएं में उड़ाकर चल देते हैं। कर लो जो करना है। हमीं हैं, हमीं रहेंगे। AN INSIGNIFICANT MAN भारत के सिनेमाई इतिहास की एक जादुई फ़िल्म है। इसमें कोई भी कलाकार नहीं है बल्कि जो वास्तविक किरदार हैं, वही कलाकार की भूमिका में हैं। आम आदमी पार्टी इस बात का गर्व ले सकती है कि उसने अपने भीतर घट रही घटनाओं को दर्ज करने के लिए किसी फिल्मकार को जगह दी, अब हो सकता है कि वह ऐसा न कर सके जैसा कि दूसरी पार्टी भी नहीं करना चाहेंगे फिर भी एक प्रयोग के तौर पर ही सही, उनके लिए यह बहुमूल्य दस्तावेज़ तो है ही। अरविंद केजरीवाल जब आंदोलनकारी से नेता बन रहे थे तब हालात और व्यावहारिकताओं पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश में वो कैसे अंतर्रिविरोधों के शिकार हो रहे थे, इसका जीवंत दस्तावेज़ है और यह फ़िल्म उनके ख़िलाफ़ नहीं बल्कि उनके आगे की यात्रा के लिए एक अच्छी डिक्शनरी है। यही बात योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण और शाज़िया इल्मी पर लागू होती है। फ़िल्म राजनीति का प्रमाणिक दस्तावेज़ है यह कहने से थोड़ा बचूंगा फिर भी कुछेक मामलों में यह प्रमाणिक दस्तावेज़ है। ख़ुश्बू और विनय ने अपने महीनों के फुटेज से जो चुना है, उस पर आज का संदर्भ हावी है। उन हज़ारों घंटों के फुटेज से डेढ़ घंटे की फ़िल्म बनाई गई है। ज़ाहिर है नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा कट-छंट गया होगा। फिल्म के सारे फुटेज असली हैं मगर एडिटिंग में एक सिनेमाई कल्पना हावी है। कई दृश्य शानदार हैं। कैमरे का कमाल ऐसा है कि आप हतप्रभ रह जाएंगे। फ़िल्म के बारे में सब नहीं लिखना चाहता, मगर ऐसी फिल्म आपको दोबारा देखने को शायद ही मिले, इसलिए देख आइयेगा।

Monday 6 November 2017

फिल्म पद्मावती को लेकर विरोध क्यों ? बीजेपी और राजपूत समुदाय ने की प्रतिबन्ध लगाने की मांग

प्रतिबन्ध लगाने की मांग फिल्म पद्मावती अभी रिलीज़ भी नहीं हुई और फिल्म को लेकर हो रहा है बड़ा विरोध |पद्मावती 1 दिसंबर को रिलीज़ होने वाली है इसके ट्रेलर को 4 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया है |लोगो को ट्रेलर काफी पसंद आ रहा है और समीक्षको द्वारा काफी सराहा जा रहा है | नया गाना घूमर भी लोगो को भा रहा है |शाहिद कपूर और रणवीर सिंह का किरदार भी लोगो को खूब पसंद आ रहा है | इसके उलट राजपूत समाज के कुछ लोग इसका विरोध कर रहे है | गुजरात बीजेपी ने फिल्म रिलीज़ होने से पहले राजपूत समाज के प्रतिनिधियों को दिखाने की मांग की है | गुजरात चुनाव को देखते हुए बीजेपी ने फिल्म रिलीज़ टालने की मांग भी की है | आपको बता दू की गुजरात में 9 और 14 दिसंबर को वोटिंग होनी है | महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्री जयकुमार तो फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने तक की बात कह रहे है | इसे आप नेताओ की मांग कहे या दोहरी राजनीति समझ से परे है | करणी सेना ( राजपूत समुदाय के लोग ) का कहना है कि संजय लीला भंसाली फिल्म के जरिये इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे है | जी हां मै उसी करणी सेना की बात कर रहा हु जिसने कुछ महीनो पहले राजस्थान में चल रही फिल्म की शूटिंग का विरोध किया था और संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी उसके बाद भंसाली ने मुंबई में ही फिल्म की अधूरी शूटिंग पूरी की | खैर अब फिल्म रिलीज़ होने वाली है तो मामला गर्माना बड़ी बात नहीं है | ऐसा पहले भी होता रहा है फिल्मो को लेकर होने वाले विरोध फिल्म निर्माताओ का फायदा ही कर रहे है क्योकि जिन फिल्मो का पिछले कुछ सालो में विरोध हुआ है उन फिल्मो का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड काफी अच्छा रहा है | फिल्म बाजीराव मस्तानी की रिलीज़ से पहले भी भंसाली पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप लगे थे |फिल्म के एक गाने का विरोध भी हुआ मगर इतने विरोध के बाद भी फिल्म की कमाई उम्मीद से ज्यादा रही और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई | बीजेपी के साथ कांग्रेस भी कह रही है कि फिल्म को करणी सेना की अनुमति के बाद ही रिलीज़ किया जाए | बात यह है कि करणी सेना को रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच सपने वाले दृश्य से ऐतराज है | करणी सेना का कहना है कि पद्मावती कभी भी अलाउद्दीन खिलजी से नहीं मिली थी |मुंबई में फिल्म पद्मावती की रिलीज़ से पहले रांगोली बनाकर प्रचार किया जा रहा था जिसे राजपूत समुदाय के लोगो ने मिटा दिया | क्या यह फिल्म सच में राजपूतो की भावनाओ को आहत कर सकती है ? या फिर इसे पब्लिसिटी पाने का मौका कहा जाए |यदि यह फिल्म सच में किसी समुदाय के लोगो को आहत कर रही है तो फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली को आगे आना चाहिए और इस विषय पर अपनी राय रखना चाहिए | फिल्म देखते वक्त लोगो को इतिहास की समझ नहीं होती इसलिए वो उस पर भरोसा कर लेते है जो दिखाया जा रहा है| उस फिल्म की कहानी के इतिहास के बारे में जानने की कोशिश भी नहीं करते चाहे कहानी काल्पनिक ही क्यों न हो | हमारी फिल्म इंडस्ट्री पिछले कुछ सालो में काफी बदली है | फिल्मो में अब हम नई तकनीक का इस्तेमाल करने भी लगे है और बाहुबली जैसी हजार करोड़ की कमाई करने वाली फिल्म भी बनाने लगे है लोगो का फिल्म देखने का नज़रिया बदला है | आज के दर्शक फिल्म को बिना रिव्यु पढ़े देखने नहीं जाते | फिल्म निर्देशक दर्शको को गलत नहीं दिखा सकते और लाखो दर्शको का भरोसा नहीं तोड़ सकते |भंसाली साहब और राजपूत समुदाय को इस पर चर्चा करना चाहिए और समस्या का हल निकालना चाहिए | वैसे भी आखिर में जीत फिल्म की ही होती है कारण है हम हमारी फिल्म इंडस्ट्री और कलाकारों से बहुत प्यार करते है #mjshajapur

Thursday 2 November 2017

जयस जिसने मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके से एबीवीपी के गढ़ को ध्वस्त कर दिया

image मध्यप्रदेश में छात्र संगठन के चुनाव में एबीवीपी की जीत की ख़बर छाई हुई है। जबलपुर से एनएसयूआई की जीत की खबर भी को जगह मिली है। लेकिन एक ऐसे छात्र संगठन की ख़बर दिल्ली तक नहीं पहुंची है। पत्रिका अखबार के धार संस्करण ने इसे पहले पन्ने पर लगाया है कि धार में जयस ने एबीवीपी के वर्चस्व को समाप्त कर दिया है। इस संगठन का नाम है जयस। जय आदिवासी युवा संगठन। डॉ आनंद राय के ट्वीट से ख़बर मिली कि मध्य प्रदेश में कुछ नया हुआ है। image 2013 में डॉ हीरा लाल अलावा ने इसे क़ायम किया है। हीरा लाल क़ाबिल डॉक्टर हैं और एम्स जैसी जगह से अपने ज़िले में लौट आए। चाहते तो अपनी प्रतिभा बेचकर लाखों कमा सकते थे मगर लौट कर गए कि आदिवासी समाज के बीच रहकर चिकित्सा करनी है और नेतृत्व पैदा करना है। 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर डॉ हीरा लाल की रैली का वीडियो देखकर हैरत में पड़ गया था। भारत में नेतृत्व दिल्ली की मीडिया फैक्ट्री में पैदा नहीं होते हैं। तीन-चार साल की मेहनत का नतीजा देखिए, आज एक नौजवान डाक्टर ने संघ के वर्चस्व के बीच अपना परचम लहरा दिया है। जयस ने पहली बार छात्र संघ का चुनाव लड़ा और शानदार जीत हासिल की है। दरअसल, मध्यप्रदेश छात्र संघ के नतीजों की असली कहानी यही है। बाकी सब रूटीन है। डॉ अलावा की तस्वीर आप देख सकते हैं। image मध्य प्रदेश का धार, खरगौन, झाबुआ, अलीराज पुर आदिवासी बहुल ज़िला है। यहां कुछ अपवाद को छोड़ दें तो सभी जगहों पर जयस ने जीत हासिल की है। धार ज़िले के ज़िला कालेज में पहली बार जयस के उम्मीदवार प्रताप डावर ने अध्यक्ष पद जीता है। बाकी सारे पद भी जयस के खाते में गए हैं। प्रताप धार के ही टांडा गांव के पास तुकाला गांव के हैं जहां आज भी पानी के लिए सात किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। प्रताप अपने गांव का एकमात्र और पहला स्नातक है। इस वक्त एम ए इकोनोमिक्स का छात्र हैं। प्रताप ने एबीवीपी और एन एस यू आई के आदिवासी उम्मीदवारों को हरा दिया है। दस साल से यहां एबीवीपी का क़ब्ज़ा था। धार के कुकसी तहसील कालेज में जीत हासिल की है। गणवाणी कालेज में भी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष समेत सारी सीटें जीत ली हैं। धर्मपुरी तहसील के शासकील कालेज में चारों उम्मीदवार जीत गए। अध्यक्ष उपाध्यक्ष और सचिव का पद जीता है। मनावर तहसील के कालेज की चारों शीर्ष पदों पर जयस ने जीत हासिल की है। गणवाणी में सारी सीटें जीते हैं। बाघ कालेज की सारी सीटें जीत गए हैं। अलीराजपुर के ज़िला कालेज की पूरी सीट पर जयस ने बाज़ी मारी है। खरगौन ज़िले के ज़िला कालेज में ग्यारह सीटे जीते हैं। जोबट और बदनावर कालेज में भी जयस ने जीत हासिल की है। इन सभी सीटों पर जयस ने एबीवीपी के आदिवासी उम्मीदवारों को हराया है। माना जाता है कि आदिवासी इलाकों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपना सामाजिक राजनीतिक आधिपत्य जमा लिया है, मगर जयस ने अपने पहले ही चुनाव में संघ और एबीवीपी को कड़ी चुनौती दी है। जयस की तरफ से धार में काम करने वाले शख्स ने कहा कि संघ हमारा इस्तमाल करता है। हमारे अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ता है। हम यह सब समझ गए हैं। जहां जहां जयस ने हराया है वहां पर एबीवीपी का ही क़ब्ज़ा था। धार से जयस के प्रभारी अरविंद मुझालदा ने बताया कि धार ज़िला कालेज की जनभागीदारी समिति की अध्यक्ष पूर्व केंद्रीय मंत्री विक्रम वर्मा की पत्नी नीना वर्मा हैं। लीला वर्मा भाजपा विधायक भी हैं। इस कालेज में उनका काफी दबदबा था जिसे जयस ने ध्वस्त कर दिया। सह-सचिव के पद को छोड़ किसी भी पद पर एबीवीपी को नहीं जीतने दिया। अरविंद का कहना था कि इलाके में भाजपा का इतना वर्चस्व है कि आप कल्पना नहीं कर सकते इसके बाद भी हम जीते हैं। हमने सबको बता दिया है कि आदिवासी समाज ज़िंदा समाज है और अब वह स्थापित दलों के खेल को समझ गया है। हमारे वोट बैंक का इस्तमाल बहुत हो चुका है। अब हम अपने वो का इस्तमाल अपने लिए करेंगे। जयस के ज़्यादातर उम्मीदवार पहली पीढ़ी के नेता हैं। इनके माता पिता अत्यंत निम्न आर्थिक श्रेणी से आते हैं। कुछ के सरकारी नौकरियों में हैं। धर्मपुरी कालेज के अध्यक्ष का चुनाव जीतने वाले प्यार सिंह कामर्स के छात्र हैं। कालेजों में आदिवासी छात्रों की स्कालरशिप कभी मिलती है कभी नहीं मिलती है। जो छात्र बाहर से आकर किराये के घर में रहते हैं उनका किराया कालेज को देना होता है मगर छात्र इतने साधारण पृष्ठभूमि के होते हैं कि इन्हें पता ही नहीं होता कि किराये के लिए आवेदन कैसे करें। कई बार कालेज आवेदन करने के बाद भी किराया नहीं देता है। आदिवासी इलाके के हर कालेज में 80 से 90 फीसदी आदिवासी छात्र हैं। इनका यही नारा है जब संख्या हमारी है तो प्रतिनिधित्व भी हमारा होना चाहिए। जयस आदिवासी क्षेत्रों के लिए एक बुनियादी और सैद्दांतिक लड़ाई लड़ रहा है। डॉ हीरा लाल का कहना है कि कश्मीर की तरह संविधान ने भारत के दस राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों और राज्यों के लिए पांचवी अनुसूचि के तहत कई अधिकार दिए हैं। उन अधिकारों को कुचला जा रहा है। पांचवी अनुसूचि की धारा 244(1) के तहत आदिवासियों को विशेषाधिकार दिए गए हैं। आदिवासी अपने अनुसार ही पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों में योजना बनवा सकते हैं। इसके लिए ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल होती है जिसमें आदिवासी विधायक और सांसद होते हैं। राज्यपाल इस काउंसिल के ज़रिए राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते हैं कि आदिवासी इलाके में सही काम हो रहा है या नहीं। मगर डाक्टर हीरा लाल ने कहा कि ज़्यादातर ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल का मुखिया आदिवासी नहीं हैं। हर जगह ग़ैर आदिवासी मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष हो गए हैं क्योंकि मुख्यमंत्रियों ने खुद को इस काउंसिल का अध्यक्ष बनवा लिया है। डॉ हीरा लाल और उनके सहयोगियों से बात कर रहा था। फोन पर हर दूसरी लाइन में पांचवी अनुसूचि का ज़िक्र सुनाई दे रहा था। नौजवानों का यह नया जत्था अपने मुद्दे और ख़ुद को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार परिभाषित कर रहा है। पांचवी अनुसूचि की लड़ाई आदिवासी क्षेत्रों को अधिकार देगी लेकिन उससे भी ज़्यादा देश को एक सशक्त नेतृत्व जिसकी वाकई बहुत ज़रूरत है।

Tuesday 31 October 2017

पीयूष गोयल एक्सचेंज ऑफ एम्लॉयमेंट- रेलवे का रोज़गार और आंकड़ों का भरमजाल

image तीस दिन में रेल मंत्री पीयूष गोयल के रोज़गार से संबंधित दो बयान आए हैं। 1 अक्तूबर 2017 को छपे बयान में गोयल कहते है कि रेलवे में एक साल के भीतर ही दस लाख रोज़गार पैदा हो सकते हैं। आज यानी 30 अक्तूबर को छपे बयान में अब कह रहे हैं कि रेलवे अगले पांच साल में 150 अरब डॉलर( 9 लाख 70 हज़ार करोड़) के निवेश की योजना बना रहा है, इससे 10 लाख अतिरिक्त रोज़गार पैदा होंगे। image 30 दिन पहले एक साल में दस लाख रोज़गार, तीन दिन में पांच साल में दस लाख रोज़गार। पीयूष गोयल के पास किस कंपनी का कैलकुलेटर है, ये तो पता नहीं मगर उनके बयान को आंख बंद कर छापते रहने वाला मीडिया ज़रूर होगा। पहला बयान विश्व आर्थिक फोरम में दिया और दसरा बयान इकोनोमिक टाइम्स के कार्यक्रम में दिया। पीयूष गोयल 3 सितंबर को रेलवे का पदभार ग्रहण करते हैं, एक महीने के भीतर एक अक्तूबर को एक साल में दस लाख रोज़गार पैदा करने का बयान देते हैं जो 30 अक्तूबर को कुछ और हो जाता है। लगता है कि पीयूष गोयल जी का अपना अलग एम्लॉयमेंट एक्सचेंज खुला है। पीयूष गोयल क़ाबिल कबीना मंत्री बताए जाते हैं। दफ्तर में समाचार एजेंसी एएनआई का वीडियो फीड आता रहता है। आते-जाते आए दिन देखता हूं कि पीयूष गोयल का भाषण स्क्रीन पर आ रहा है। कभी सुना तो नहीं मगर वे काफी तल्लीनता से बोलते नज़र आते हैं। इतने कम समय में रेलवे जैसे महामंत्रालय पर बोलने के लिए इतनी विश्वसनीयता हासिल करना सभी मंत्री के बस की बात नहीं है। 1 अक्तूबर को विश्व आर्थिक फोरम में बोलते हुए पीयूष गोयल ने एक सावधानी बरती थी। उन्होंने कहा था कि मेरा खुद का मानना है कि बेशक ये रेलवे में सीधी नौकरियां नहीं होंगी लेकिन लोगों को जोड़कर और पारिस्थितिकी तंत्र (ECO SYSTEM) के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर एक साल में कम से कम दस लाख रोजगार के अवसर सृजित किए जा सकते हैं। सरकार रेलवे ट्रैक औऱ सुरक्षा रखरखाव पर आक्रामक तरीके से आगे बढ़ रही है। इनसे अकेले दो लाख रोज़गार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं। यह बयान मैंने हिन्दुस्तान अख़बार की वेबसाइट से लिया है। रेलवे में सीधी नौकरियां नहीं होंगी। उनके बयान के इस हिस्से को याद रखिएगा। image हाल ही में रेलवे ने ट्रैकमैन और इंजीनियरों की 4000 से अधिक बहाली निकाली है। नौजवानों के लिए नहीं, रिटायर लोगों के लिए। बात दस लाख की करते हैं और वैकेंसी 4000 की निकलाते हैं। मई महीने में रेलवे से संबंधित एक ख़बर छपी है हिन्दुस्तान में। आरआरबी एनटीपीसी ने 18,262 पदों की वैकेंसी निकाली। अभ्यर्थी इम्तहान भी दे चुके हैं लेकिन रिज़ल्ट निकालने से पहले पदों की संख्या में चार हज़ार की कटौती कर दी जाती है। इसके तहत पटना, रांची और मुज़फ्फरपुर की सीटें सबसे अधिक घटा दी गईं। एएसम और गुड्स गार्ड के पदों को भी कम किया गया है। इस परीक्षा में 92 लाख छात्र शामिल हुए थे। इस आंकड़े से मैं सन्न रह गया हूं। दिसबंर 2015 में इस परीक्षा का फार्म निकला था, अभी तक इसका अंतिम परिणाम नहीं आया है। आए दिन छात्र मुझे मेसेज करते रहते हैं। 12 दिसंबर 2014 को राज्य सभा में सुरेश प्रभु ने कहा था कि रेलवे में संरक्षा से जुड़े 1 लाख 2 हज़ार पद ख़ाली हैं। इसमें पटरी की निगरानी से जुड़े कर्मचारी भी शामिल हैं। यह ख़बर वार्ता से जारी हुई थी और वेबदुनिया ने छापा था। क्या कोई बता सकता है कि तीन साल में एक लाख से अधिक इन ख़ाली पदों पर कितनी नियुक्तियां हुई हैं? अगर रेलवे की तरफ से ऐसा कोई बयान आया तो ज़रूर अपने लेख में संशोधन करूंगा या नया लेख लिखूंगा। अब आइये निवेश की बात पर। 15 जुलाई 2017 को गांव कनेक्शन में पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु का बयान छपा है कि रेलवे ने पूरा रोडमैप तैयार कर लिया है। पांच साल में पूरा रेल नेटवर्क बदल जाएगा। इसके लिए 8.2 लाख करोड़ के निवेश की ज़रूरत होगी। तीन साल रेलमंत्री बनने के बाद सुरेश प्रभु रोडमैप बनाते हैं और 8.2 लाख करोड़ के निवेश की बात करते हैं। पीयूष गोयल को रेल मंत्री बने तीन महीने भी नहीं हुए और वे 150 अरब डॉलर के निवेश की बात करने लगते हैं। यह उनका नया प्रोजेक्ट है या सुरेश प्रभु के ही प्रोजेक्ट में एक लाख करोड़ और जोड़ दिया है। वो भी इतनी जल्दी ? अब यह कौन बताएगा कि पीयूष गोयल का 150 अरब डॉलर का निवेश, सुरेश प्रभु के रोडमैप का ही हिस्सा है या अलग से कोई रोडमैप है। क्या पुराना रोड मैप कबाड़ में फेंक दिया गया है? उसे तैयार करने में कितनी बैठके हुईं, कितना वक्त लगा और कितना पैसा ख़र्च हुआ,किसी को मालूम है? 02 मार्च 2017 में मैंने अपने ब्लॉग कस्बा पर एक लेख लिखा था। क्या रेलवे में दो लाख नौकरियां कम कर दी गईं हैं? उस दिन के टाइम्स आफ इंडिया के पेज 20 पर प्रदीप ठाकुर की रिपोर्ट छपी थी कि इस बार के बजट में सरकार ने 2 लाख 8000 नौकरियां का प्रावधान किया गया है। इसमें से 80,000 के करीब आयकर विभाग और उत्पाद व शुल्क विभाग में रखे जाएंगे। मेरे पास इसकी जानकारी नहीं है कि इनकी वैंकसी आई है या नहीं, कब आएगी और कब बहाली की प्रक्रिया पूरी होगी। सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट में केंद्र सरकार के किस विभाग में कितने पद मंज़ूर हैं और कितने ख़ाली हैं इसे लेकर एक गहन विश्लेषण है। इससे पता चलता है कि राजस्व विभाग में आठ सालों के दौरान यानी 2006 से 2014 के बीच मात्र 25, 070 बहालियां हुई हैं। क्या कोई बता सकता है कि राजस्व विभाग ने एक साल के भीतर 80,000 भर्तियां निकाल दी हैं और नियुक्ति पत्र चले भी गए हैं। टाइम्स आफ इंडिया की इस रिपोर्ट में लिखा है कि बजट के एनेक्स्चर में रेलवे के मैनपावर में 2015 से लेरक 2018 तक कोई बदलाव नहीं है। यानी सरकार ने मैनपावर बढ़ाने का कोई लक्ष्य नहीं रखा है। अखबार ने लिखा है कि 2015 से 18 तक रेलवे का मैनपावर 13, 26, 437 ही रहेगा। 1 जनवरी 2014 को यह संख्या 15 लाख 47 हज़ार थी। बताइये मंज़ूर पदों की संख्या में ही दो लाख से अधिक की कटौती है। पहले पीयूष गोयल बताएं कि क्या मोदी सरकार आने के बाद रेलवे में दो लाख नौकरियों की कटौती की गई है? यदि नहीं तो 2014-17 के बीच कितने रोज़गार दिए गए हैं? यह जानना ज़रूरी है तभी पता चलेगा कि तीन साल में रेलवे ने कितनी नौकरियां दीं और पांच साल में कितनी नौकरिया देने की इसकी क्षमता है। image इसी साल के दूसरे हिस्से में हिन्दुस्तान अखबार में पहले पन्ने पर ख़बर छपी थी। उस दिन किसी अस्पताल में था तो सामने की मेज़ पर पड़े अख़बार की इस ख़बर को क्लिक कर लिया था। ख़बर यह थी कि रेलवे इस साल कराएगा दुनिया की सबसे बड़ी आनलाइन परीक्षा। सितंबर में डेढ़ लाख भर्तियों के लिए अधिसूचना जारी होगी। इस परीक्षा में डेढ़ करोड़ अभ्यर्थी शामिल होंगे। अब इस लेख के ऊपरी हिस्से में जाइये जहां आरआरसी एनटीपीसी की वैकेंसी की बात लिखी है। 18000 पदों के लिए 92 लाख अभ्यर्थी शामिल होते हैं। डेढ़ लाख भर्तियों के लिए मात्र डेढ़ करोड़ ही शामिल होंगे? हिसाब लगाने वाले के पास कोई कैलकुलेटर नहीं है क्या ? या फिर ये सब आंकड़े लोगों की उम्मीदों से खेलने के नए स्कोर बोर्ड बन गए हैं। भारत में पहली बार, दुनिया का सबसे बड़ा, एक लाख करोड़ के निवेश, दस लाख रोज़गार, इस तरह के दावे हेडलाइन लूटने के लिए कर दिए जाते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं।

हम भारत के हिंसक लोग

भारत की आत्मा भटक रही है। जाने कब उसने स्वर्ण युग देखा लिया था,जिसके लौटा लाने के लिए जब तब कोई घुड़सवार तलवार लेकर आ जाता है और ललकारने लगता है। कोई उस युग में लौटा ले जाने का ख़्वाब दिखाता है तो कोई उस युग को दोबारा क़ायम कर देना चाहता है। इस भटकती हुई आत्मा के पास घोड़ा एक ही है। समय-समय पर घुड़सवार बदल जाते हैं। भारत को इसी भटकती हुई आत्मा की आह लग गई है। जिसके कारण हम और आप हिंसा की बात करने वाले नायकों के पीछे खड़े हो जाते हैं। हम सबको वह स्वर्ण युग चाहिए जो कभी था ही नहीं। भारत के अतीत का आदर्शवाद इतना एकतरफा है, कई बार लगता है कि उस स्वर्ण युग में कभी किसी ने झूठ ही न बोला हो, किसी की हत्या न की हो, कोई प्रपंच न हुआ हो। जो भी था, दैवीय था। ऐसा कालखंड इस धरती पर सिर्फ भारत में ही हुआ और कही नहीं हुआ। अंहिसा की बेहतर समझ के लिए ज़रूरी है कि हम हिंसा को बेहतर तरीके से समझें। हिंसा को लेकर ईमानदार हों।
प्राचीन भारत का महिमामंडन आज तक जारी है। आज़ादी की लड़ाई के दौर में हुआ। वर्तमान इतना खोखला हो चुका था कि अतीत से आत्मबल तलाशने की होड़ सी मच गई । आज़ादी के बाद प्राचीन भारत को समझने के कितने ही गहन प्रयास हुए मगर उन सबको कभी मार्क्सवादी तो कभी राष्ट्रवादी, कभी दक्षिणपंथी तो कभी वामपंथी कह कर ख़ारिज किया जाने लगा। इतिहास की धाराओं का आपसी टकराव धर्म के नाम पर मूर्खतापूर्ण धारणाओं के लिए जगह बनाता रहा। राजनीतिक सत्ता के समर्थन से धर्म का चोला ओढ़े लोग प्राचीन भारत के बारे में कुछ भी एलान कर सकते हैं। उस एलान में अंतिम सत्य होने का दावा भरा रहता है। उसका इतना प्रभाव रहता है कि आप बी डी चट्टोपाध्याय,सुविरा जयसवाल, के एम श्रीमाली , डी एन झा, रामशरण शर्मा,रोमिला थापर, कुमकुम रॉय, कुणाल चक्रवर्ती, नयनजोत लाहिरी, उपिंदर सिंह जैसों को पढ़ने से पहले उन्हें रिजेक्ट करने लगते हैं। वैसे उनका लोहा मानने वाले भी कम नहीं हैं। क्लास रूम में इन्हीं का काम बोलता है।
पोलिटिकल वॉर रूम में इन्हीं को चुनौती दी जाती है। इनके लिखे और इनके दिए संदर्भों को लेकर नहीं बल्कि सरकार के दम पर। इतिहास को पढ़ना हमेशा किसी नतीजे पर पहुँचना नहीं होता है बल्कि उस समय देखना और जानना होता है। पढ़ने से जो बचते हैं वही पढ़े लिखे को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। इन दिनों प्राचीन भारत का आदर्शवाद फिर से थोपा जा रहा है। एक प्रधानमंत्री का उदय हुआ है जो ख़ुद भी और उनके प्रभाव से अन्य जन भी प्लास्टिक सर्जरी से लेकर पुष्पक विमान तक को तमाम वैज्ञानिक खोजों पर थोप देते हैं। प्राचीन भारत की वैज्ञानिकता भी उसी तरह संदिग्ध और अधूरी है जिस तरह प्राचीन भारत के दर्शनों और सामाजिक यर्थाथ का आदर्शवाद, उनका महिमंडन अधूरा है।
आज़ादी की लड़ाई के दौर में गांधी, सावरकर, अंबेडकर, नेहरू सबने प्राचीन भारत से आदर्शवाद उठाया। अपने अपने प्रभावों का विस्तार किया और दुनिया के सामने एक आदर्शवादी प्राचीन भारत की रुपरेखा रखी जिसके गर्भ से अहिंसा, सहिष्णुता का मध निकलता है, जो दुनिया में कहीं और नहीं है। इस बात को लेकर बहस हो सकती है और इसमें दम भी है कि इन सभी की सोच सिर्फ प्राचीन भारत की धाराओं से प्रभावित नहीं थी। पश्चिम की अनेक धाराएं और उस समय का यथार्थ भी इन्हें अहिंसा के तरफ देखने के लिए इशारा कर रही थी।
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इतिहासकार उपिंदर सिंह की एक किताब आई है। उसी के संदर्भ में यह सब बातें कर रहा हूं। किताब का नाम है Political Violence in Ancient India. हावर्ड यूनिवर्सटी प्रेस ने छापी है और 598 पन्नों की इस किताब की कीमत है 45 अमरीकी डॉलर। भारतीय रुपये में कीमत का पता नहीं चल सका। मैं किसी भी किताब के बारे में लिखते समय प्रकाशक, कीमत और पन्नों की संख्या ज़रूर लिखता हूं। ताकि पढ़ने के बाद लोग न पूछें कि कितने की है और कहां से ख़रीदें। इसके बाद भी लोग यह सवाल करते हैं। इस किताब को उसे पढ़ना चाहिए जो हिन्दू मुस्लिम बहस को दूर से देख रहा है। जिसकी प्राचीन भारत में दिलचस्पी है। वो तो कभी नहीं पढ़ेगा जो हिन्दू-मुस्लिम डिबेट सिर्फ एकतरफ़ा मक़सद से करता या करवाता रहता है।
यह किताब प्राचीन भारत में हिंसा और अहिंसा को लेकर विमर्श की जड़ों की तलाश करती है। देखने की कोशिश है कि कब और कहां से अहिंसा के तत्व हावी होने लगते हैं। इसी के साथ उपिंदर सिंह ने हिंसा के तत्वों को भी सामने लाने का प्रयास किया है ताकि हम उस दौर की हिंसा और उसके स्वरूप को समझ सकें। राज्य सत्ता के दायरे में हिंसा का स्वरूप अलग अलग रहा है। किताब का पहला चैप्टर राजगीर और वैशाली से शुरू होता है। मगध की राजधानी राजगीर जो न सिर्फ राजनीतिक सत्ता का केंद्र था बल्कि त्याग और अहिंसा पर ज़ोर देने वाले विचारकों का भी गढ़ रहा है। हम कम ही बात करते हैं कि शुरूआती दिनों में पुत्र ने कुर्सी के लिए पिता की हत्या तक की है। बिंबसार की हत्या अजातशत्रु ने की। उसके बाद के चार उत्तराधिकारियों को भी पितृहंता कहा गया है। पितृहंता मतलब पिता की हत्या करने वाला। हरयांका वंश (HARYANKA DYNASTY) का अंत लोगों ने किया। उसके राजा को कुर्सी से उतार दिया औऱ उसके सिपाही शिशुनाग को गद्दी सौंप दी। यह हिंसा का दूसरा स्वरूप है। जनता भी राजा तय करती थी। शिशुनाग वंश का अंत हिंसा से होता है और उसकी जगह नंद वंश आता है। जो ख़ुद को संपूर्ण क्षत्रियों का संहारक घोषित करता है। मौर्य वंश भी पारंपरिक और कुलीन क्षत्रियों या सत्ताधारी वर्ग को पलटते हुए अपनी राज्य और सैन्य सत्ता का विस्तार करता है। उपिंदर सिंह इन सब किस्सों को हिंसा के संदर्भ में देखती है। समझना चाहती है कि इन सबके बीच हिंसा और अहिंसा को लेकर किस तरह का नज़रिया समाज से लेकर राजसत्ता तक उभर रहा है।
उनका कहना है कि छठी और पांचवी ईसा पूर्व की सदी से हिंसा और अहिंसा को लेकर होने वाली बहसें मुखर होने लगती हैं। इसी कालखंड में प्राचीन भारत के विचारों का इतिहास सबसे अधिक उर्वर था। धर्म का मतलब भी समय के साथ बदलता है। पहले धर्म कर्मकांडीय क्षेत्र तक सीमित था फिर इसे राजनीतिक तौर पर देखा जाने लगा और उसके बाद नैतिक तौर पर। इस दौर में सत्ता और ज्ञान को लेकर ख़ूब बहस होती है। इतनी कि उसकी निशानी या फिर वो बहसें आज तक चली आ रही हैं। यहीं से भारतीय संस्कृति में त्याग को लेकर काफी ज़ोरदार बहस होने लगती है। त्या के मतलब में शामिल था सत्ता और अर्थ के मोह को छोड़ देना। अंहिसा को लेकर भी बहस होती है। इतिहासकार उपिंदर सिंह खोज रही हैं कि हम कहां से हिंसा के महिमामंडन की आलोचना के सूत्र खोज सकते हैं और कहां से देख सकते हैं कि हिंसा से विरक्ति हो रही है और अहिंसा का आदर्श स्थापित हो रहा है।
इसके तीन जवाब है। वैदिक मत के भीतर भी अहिंसावादी का पता चलता है। ग़ैर वैदिक संत परंपरा में, जिसे जैन और बौद्ध परंपरा कहा जाता है, अंहिसावादी मतवालंबी मिलते हैं। एक तीसरी धारा है जो ब्राह्मणवादी, बौद्ध और जैन परंपरा के समानांतर विकसित होती है। मैं अभी इस किताब को पढ़ रहा हूं। यह किताब प्राचीन भारत के प्रति हमारी समझ को समृद्ध करती है। समृद्ध करने का मतलब यह नहीं कि एक पक्ष की जीत और एक पक्ष की हार का एलान करती है। बल्कि बताती है कि जीवन को इस तरह देखा ही नहीं जा सकता है। जीवन को ही नहीं, अपने इतिहास को भी नहीं। जो ऐसा नहीं करते हैं वही अतीत पर अपनी नासमझी थोप देते हैं और भारत की आत्मा को बेचन कर देते हैं।
समाज के भीतर हिंसा की परंपरा को समझना चाहिए तभी हम आज के संदर्भ में सत्ता के हिंसक चरित्र को समझ सकते हैं। हमारे समाज में जातीय हिंसा का अमानवीय चक्र आज भी जारी है। सत्ता के हिंसक किस्सों को हम भोग रहे हैं मगर बोलते समय अपनी राजनीतिक निष्ठा का ज़्यादा ख़्याल रखते हैं। जी एन साईबाबा को नक्सल समर्थक होने के आरोप में जेल में बंद किया गया है। उन्होंने अपनी पत्नी को पत्र लिखा है कि उनके साथ ऐसा बर्ताव हो रहा है जैसे कोई जानवर अपने अंतिम दिनों में तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। जीएन साईंबाबा 90 फीसदी विकलांग हैं। आप दिव्यांग कह लीजिए तो इस ईश्वर के वरदान के साथ ये बर्ताव हो रहा है कि सर्दी से कांप रहा है मगर कंबल नहीं दिया जा रहा है। एक पक्ष यह है। दूसरा पक्ष यह होगा कि आप कहेंगे कि नक्सलवादियों ने जवानों को मारा जिनका कोई कसूर नहीं था। एक तीसरा पक्ष यह है कि आदिवासियों के साथ राज्य सत्ता ने हिंसा की, उन्हें बेदखल कर उनकी ज़मीन और संपत्ति बड़े औद्योगिक घरानों को सौंप दी। हिंसा का यह चक्र तीनों दृष्टि से क्रूर है। एक चौथा पक्ष है, यही सत्ता पक्ष जवान से लेकर नागरिक जिसे जब चाहे उठाकर जेलों में बंद कर सकता है और आपको वर्षों कोर्ट के चक्कर लगवा सकता है। 
हम सब हिंसा के शिकार हैं। हम हर तरह की हिंसा के प्रति सहनशील हो चुके हैं। बुद्धिहीन हो चुके हैं। हम सब हिंसक हैं और हिंसा के चक्र में ही जीने के लिए अभिशप्त हैं। इसलिए अंहिसा का गुणगान करने से पहले उस हिंसा का चेहरा देख लीजिए जो हम सबका है। हिंसा को सहना भी हिंसा है। हिंसा को होते हुए देखना भी हिंसा है। हिंसा करने वाले राज्य का अहिंसा का ढोंग करना भी हिंसा है। आप यह किताब अपनी दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए पढ़ सकते हैं। हमने जो उदाहरण दिए हैं वो पूरे नहीं हैं। करीब 600 पन्नों की किताब के बारे में राय उसे पढ़ने के बाद ही बनाइये न कि मेरी समीक्षा के बाद। आलस्य भी हिंसा है दोस्त।

Friday 27 October 2017

प्रधानमंत्री जी गुजरात के वे 50 लाख घर कहां हैं?

2012 में जब गुजरात में चुनाव करीब आ रहे थे तब गुजरात में घर को लेकर काफी चर्चा हो रही थी। कांग्रेस ने गुजरात की महिलाओं के लिए घर नू घर कार्यक्रम चलाया था कि सरकार में आए तो 15 लाख प्लाट देंगे और 15 लाख मकान। कांग्रेस पार्टी के दफ्तरों के बाहर भीड़ लग गई थी और फार्म भरा जाने लगा था। इस संबंध में आपको गूगल करने पर अर्जुन मोदवादिया का बयान मिलेगा।
2012 के अगस्त महीने में मिंट अख़बार के मौलिक पाठक ने इस पर रिपोर्ट करते हुए लिखा था कि दो दिन के भीतर कांग्रेस की इस योजना के तहत 30 लाख फार्म भर दिए गए थे। मौलिक पाठक ने लिखा कि गुजरात हाउसिंग बोर्ड ने पिछले दस साल में एक भी स्कीम लांच नहीं की है। उससे पहले कोई 1 लाख 70,000 घर बनाए हैं। कांग्रेस की इस योजना के दबाव में आकर गुजरात हाउसिंग बोर्ड ने 6,300 नए घरों की स्कीम लांच कर दी। तब इसके जवाब में गुजरात हाउसिंग बोर्ड के चेयरमैन ने कहा था कि पहले मांग नहीं थी। अब मांग हो रही है तो यह योजना आई है। दस साल तक गुजरात में किसी को घर की ज़रूरत ही नहीं पड़ी!
मिंट की रिपोर्ट में दिया गया है कि 2001 से लेकर 2012 तक इंदिरा आवास योजना के तहत 9,14,000 घर बने थे। सरदार आवास योजना के तहत 3 लाख 52,000 घर बने। इसी रिपोर्ट में बीजेपी के प्रवक्ता आई के जडेजा ने कहा था कि मोदी जी ने 11 साल में साढ़े बारह लाख घर बनाए हैं। कांग्रेस ने 40 साल में 10 लाख ही घर बनाए थे।
3 दिसंबर 2012 के किसी भी प्रमुख अख़बार में यह ख़बर मिल जाएगी। बीजेपी का संकल्प पत्र पेश करते हुए मुख्यमंत्री के तौर पर संकल्प पत्र पेश करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि 5 साल में 30 लाख नौजवानों को नौकरी देंगे। गांव और शहरों के ग़रीबों के लिए 50 लाख घर बना कर देंगे। गुजरात में क्या वे 30 लाख नौजवान सामने आ सकते हैं जिन्हें नौकरी मिली है या घर मिले हैं? क्या इस चुनाव में वे इसकी बात करेंगे?
तब मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने 40 साल में घटिया क्वालिटी के 10 लाख घर ही बनाए। बीजेपी ने दस साल में 22 लाख घर बनाए। अभी ठीक एक पैराग्राफ पहले आप बीजेपी प्रवक्ता का बयान देखिये। दस साल में साढ़े बारह लाख घर बने हैं। मुख्यमंत्री मोदी कह रहे हैं कि 22 लाख घर बने हैं। दस लाख की वृद्धि हो जाती है।
8 दिसंबर 2012 के इंडियन एक्सप्रेस में अजय माकन का बयान छपा है। वे तब केंद्र में शहरी विकास मंत्री थे। माकन कह रहे हैं कि 5 साल में 50 लाख घर बनाने की योजना असंभव है। यही बात केशुभाई पटेल ने भी कही थी। माकन ने तब कहा था कि बीजेपी सरकार ने 7 साल में मात्र 53, 399 घर ही अलाट किए हैं। अगर आप ज़मीन की कीमत निकाल भी दें, तो भी 50 लाख घर बनाने में 2 लाख करोड़ की लागत आएगी। इतना पैसा कहां से आएगा?
5 साल बीत रहे हैं। नरेंद्र मोदी इस बीच मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री हो चुकी हैं। 2012 के जनादेश के एक हिस्से में यानी 2012-14 के बीच मुख्यमंत्री और 2014 से 2017 के बीच प्रधानमंत्री। यानी वे यह भी नहीं कह सकते कि दिल्ली की सल्तनत ने ग़रीबों के आवास के लिए पैसे नहीं दिए। वे चाहें तो दो मिनट में बता सकते हैं कि किन किन लोगों को 50 लाख घर मिले हैं और वे घर कहां हैं।
30 मार्च 2017 के इकोनोमिक टाइम्स में कोलकाता से एक ख़बर छपी है। तब शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू थे। इस खबर के अनुसार 2015 में लांच हुई प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत गुजरात में सबसे अधिक 25, 873 घर बनाए हैं। यह देश में सबसे अधिक है। आप सोचिए, 2015 से 2017 के बीच 25, 873 घर बनते हैं तो इस दर से क्या 2012 से 2017 के बीच 50 लाख घर बने होंगे? 50 लाख छोड़िए, पांच लाख भी घर बने हैं?
28 अगस्त 2017 के इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर है। मोदी सरकार ने शहरी ग़रीबों के लिए 2 लाख 17 हज़ार घर बनाने की योजना को मंज़ूरी दी है। इसके तहत गुजरात में 15, 222 घर बनने हैं। मोदी सरकार ने अभी तक देश भर में 26 लाख 13 हज़ार घर बनाने की मंज़ूरी दी है जिस पर 1 लाख 39 हज़ार करोड़ ख़र्च आने हैं।
अब आप ऊपर दिए गए अजय माकन के बयान को फिर से पढ़िए। माकन कह रहे हैं कि ज़मीन का दाम भी हटा दें तो भी 50 लाख घर बनाने में 2 लाख करोड़ चाहिए। यहां मोदी पूरे देश के लिए 50 लाख नहीं बल्कि उसका आधा यानी 26 लाख घर बनाने के लिए 1 लाख 39 हज़ार करोड़ की बात कर रह हैं। तो पचास लाख घर का हिसाब दो लाख से भी ज़्यादा बैठता है। वो भी एक राज्य के लिए, यहां मोदी 2022 तक इस योजना के तहत सबको घर देना चाहते हैं, यह योजना पूरे देश के लिए है।
18 जून 2015 की हिन्दू की ख़बर पढ़िए। 2022 के लिए यानी 2015 से 2022 तक के लिए दो करोड़ घर बनाने के लक्ष्य का एलान हुआ है। हर परिवार को पक्का घर मिलेगा। दो साल बाद मोदी कैबिनेट 26 लाख घर बनाने की मंज़ूरी देती है। आप राजनीति समझ रहे हैं या हिसाब समझ रहे हैं या लाफ्टर चैलेंज का कोई लतीफा सुन रहे हैं?
क्या गुजरात में बीजेपी ने 2012-12017 के बीच 50 लाख घर बना कर दिए? हमारे पास इसका कोई न तो जवाब है न ही प्रमाण। गूगल में बहुत ढूंढा। 28 अगस्त 2016 को कांग्रेस नेता हिमांशु पटेल का बयान है। हिमांशु आरोप लगा रहे हैं कि बीजेपी ने 20 प्रतिशत भी घर बनाकर नहीं दिए हैं।
आप कहेंगे कि बीजेपी ही चुनाव जीतेगी। बिल्कुल जीतेगी। मगर क्या वो जीत और भी शानदार नहीं होती अगर पार्टी या प्रधानमंत्री मोदी अपने वादे का हिसाब दे देते? बता देते कि 50 लाख घर कहां हैं? 30 लाख रोज़गार कहां हैं?
नोट: गूगल सर्च करके यह सब लिखा है। आप भी गूगल कीजिए। अगर कोई औपचारिक बयान मिले तो कमेंट में लिखिएगा हम यहां जोड़ देंगे।

Monday 23 October 2017

क्या बीजेपी के लिए गाय सिर्फ सियासी धंधा है?

छत्तीसगढ़ में 200 से अधिक गायों की भूख और कुपोषण से मौत पर कोई ललकार ही नहीं रहा है कि मैं क्यों चुप हूं। लाखों गायें रोज़ सड़कों पर प्लास्टिक खाकर मर रही हैं। कैंसर से भी पीड़ित हैं। उनके बारे में भी कुछ नहीं हो रहा है। जबकि गायों के लिए वाकई कुछ अच्छा किया जाना चाहिए। सारी ऊर्जा गाय के नाम पर बेवकूफ बनाने और नफ़रत की राजनीति फैलाने के लिए ख़र्च हो रही है। गाय के नाम पर आयोग बन गए, मंत्रालय बन गए मगर गाय का भला नहीं हो रहा है।
इंडियन एक्सप्रेस में एक तस्वीर छपी है। गेट पर बड़ा सा कमल निशान बना है। जिसके अंदर अलग अलग ख़बरों के अनुसार 200 से 500 गायों के मरने का दावा किया जा रहा है। गौशाला चलाने वाला हरीश वर्मा भाजपा के जमुल नगर पंचायत का उपाध्यक्ष है। इसके ख़िलाफ़ एफ आई आर दर्ज हुई है और गिरफ्तार हुआ है।
क्योंकि इसकी गौशाला में बड़ी संख्या में गायें भूख और प्यास से मर गईं हैं। गौशालाओं में वैसे ही अशक्त हो चुकी गायें लाई जाती हैं उन्हें चारा न मिले तो कैसे तड़प कर मर जाती होंगी, सोच कर ही आंसू निकल जाते हैं। और ये बात मैं नाटकीयता पैदा करने के लिए नहीं कह रहा। गाय दूहने से लेकर जीभ का दाना छुड़ाने के लिए दवा भी रगड़ सकता हूं। मैं इस बात से हिल गया हूं कि गाय भूख और प्यास से मर सकती है और उसके यहां मर सकती है जिनका हर बड़ा नेता चुनाव आते ही गाय गाय करने लगता है।
एक्सप्रेस ने लिखा है कि गौशाला के भीतर मरी हुई गायें बिखरी पड़ी हैं। उनके कंकाल निकलने लगे हैं और सडांध फैल रही है। गायों के मांस अवारा कुत्ते खा रहे हैं। पिछले साल भी हरीश वर्मा की गौशाला का मामला स्थानीय मीडिया में ख़ूब उछला था।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में ‘सरपंच पति’ शिवराम साहू ने बयान दिया है कि जब वे भीतर गए तो देखा कि गायों के लिए न तो चारा था, न पानी। वर्मा ने सरकार की एजेंसी पर ही आरोप मढ़ा है कि सतर्क किया था कि गौशाला के पास कैश नहीं है। जैसे गोरखपुर में आक्सीजन के लिए कैश नहीं था।
छत्तीसगढ़ से सोमेश पटेल का व्हाट्स अप मेसेज आया है। बेमेतरा ज़िला के परपोड़ी थाना के गोटमर्रा में फूलचंद गौशाला है। यहां 100 से अधिक गायों की मौत हुई है। गौशाला संचालक ने ईंट भट्टे में छुपाने का प्रयास किया है। गौसेवक आयोक के अध्यक्ष गीतेश्वर पटेल ने किया निरीक्षण। 13 गायों की मौत का लोकर परपोड़ी थाने में मामला दर्ज। ज़िला प्रशासन मामले से बेख़बर। ये अलग घटना है। इसका संबंध हरीश वर्मा की गौशाला से नहीं है।
विश्व हिन्दू परिषद के सह प्रान्त संयोजक ओमेश बिशन से फोन पर बात हुई, उनकी बातचीत को लिखने के लिए अनुमति ले चुका हूं। ओमेश बिशन जी ने बताया कि हरीश वर्मा का पास तालाब है जिसमें मांगुर मछली पलती है। यह मछली मांस खाती है इसलिए मरी हुई गायों को तालाब में डाल देता था और लोगों को पता नहीं चलता था। हम लोगों ने उस तालाब को बंद करवाया इसलिए भी लोगों को मरी हुई गायें बाहर दिख रही हैं।
ओमेश जी कहते हैं कि हरीश की गौशाला को 93 लाख का पेमेंट भी हुआ है मगर हरीश का कहना है कि दो साल से पेमेंट नहीं हुआ। सरकार ने एक साल का दस लाख नहीं दिया। वेटनरी डाक्टर कह रहे हैं कि दो दिन में 27 गायों का पोस्टमार्टम किया है। एक्सप्रेस कह रहा है कि 30 कंकाल तो खुद ही उसके संवाददाता ने गिने हैं। हरीश का कहना है कि 16 गायें मरी हैं और दीवार गिरने से। पुलिस कह रही है कि 250 गायें मरी हैं। क्या 27 गायों का भूख से मरना शर्मनाक घटना नहीं है। जब एक गाय के नाम पर आदमी मार दिया जा रहा है तो 27 गायों की संख्या कैसे 200 या 500 के आगे छोटी हो जाती है।
हमने ओमेश जी से कई सवाल पूछे। मैं हैरान था कि एक साल में दो लाख गायों के मरने का आंकड़ा उनके पास कहां से आया है। वे कहने लगे कि अकेले रायपुर में हर दिन सड़क दुर्घटना और पोलिथिन खाकर साठ से अस्सी गायें मरती हैं। सरकार में बैठे लोग मौज कर रहे हैं। कोई कुछ नहीं करता है। मैंने कहा भी ओमेश जी, लिख दूं तो कहा कि बिल्कुल लिखिये। मुझे भी ध्यान नहीं था कि सड़क दुर्घटना से मरने वाली गायों की संख्या को लेकर तो कोई हिसाब ही नहीं होता है। ओमेश जी से जब मैंने पूछा कि गायों को लेकर क्या हो रहा है तब, इतनी राजनीति होती है, मारपीट होती है, तो फिर लाभ क्या हुआ। उनका जवाब था, गायों के लिए कुछ नहीं हुआ।
गौ रक्षा के तमाम पहलू हैं। ओमेश जी अपनी समझ के अनुसार गाय के प्रति समर्पित लगे। कोई उनसे असहमत भी हो सकता है, यह सवाल बनता भी है कि बीफ पर बैन से कमज़ोर गायों की संख्या बढ़ेगी, उनका लालन पालन नहीं होगा और किसान अपनी गायों को भूखा मारने के लिए छोड़ देता है क्योंकि उसकी आर्थिक शक्ति नहीं होती है। यह सब सवाल हैं मगर ओमेश का कहना है कि समाज का बड़ा तबका गायों की रक्षा के लिए लगा हुआ है मगर सरकार ही कुछ नहीं करती है।
ओमेश जी ने कहा कि सड़क दुर्घटना और पोलिथिन खाकर मरने वाली गायों का मेरे पास रिकार्ड है। मैंने पचास हज़ार ऐसी गायों की तस्वीर और वीडियो बनाई है। हो सकता है कि उनकी बातों में अतिरेक हो मगर बंदे ने कह दिया कि रायपुर का वो मैदान भी दिखा सकता हूं जहां इन गायों को दफनाया है। फिर बात चारागाह की ज़मीन को लेकर होने लगी तो उन्होंने ही कहा कि कुछ नहीं हुआ है इस मामले में भी। खुद सरकार चारागाह की ज़मीन पर कब्ज़ा करती है वहां कालोनी बनाती है, सरकारी इमारत बनाती है। नया रायपुर बना है, उसके लिए बड़ी मात्रा में चारागाह की ज़मीन पर कब्ज़ा हो गया है। ओमेश ने कहा कि आप बेशक ये बात लिख सकते हैं, हम लोगों ने ख़ूब पत्र लिखे हैं। मैं उनसे सबूत के तौर पर मीडिया में छपी ख़बरों की क्लिपिंग मांगने लगा तो उनका जवाब था कि वे रायपुर से सौ किमी दूर हैं, वरना दे देते। जांच में लीपापोती होती रहेगी मगर गौशालाओं की हालत ख़राब है इससे कौन इंकार कर सकता है।
राजस्थान के जालौर ज़िले से इसी 27 जुलाई को हिन्दुस्तान टाइम्स ने ख़बर छापी। भारी वर्षा के कारण 700 गायें मर गईं। गायें इतनी अशक्त हो गईं कि उठ ही नहीं सकी। जहां बैठी थीं वहीं पानी किचड़ में सन गईं और मर गईं। बारिश के कारण चारा नष्ट हो गया। 3300 गायें घायल हो गईं जिनका इलाज चल रहा है। पिछले साल जुलाई में जयपुर के हिंगोनिया गौशाला में 500 गायों की मौत हो गई थी।
इसका मतलब है कि गायों को रखने के लिए कोई बुनियादी ढांचा नहीं खड़ा किया गया या पहले के ढांचे को बेहतर ही नहीं किया गया। चारागाह की ज़मीन पर कब्ज़ा हो गया है। इस पर किसी का ध्यान नहीं है। क्योंकि इससे गांव गांव शहर शहर में बवाल हो जाएगा। हिन्दुओं की आस्था के नाम पर दुकान चलाने वालों का खोंमचा उजड़ जाएगा। इसलिए गाय को लेकर भावनाओं को भड़काओं और भावनाओं को मुसलमानों की तरफ ठेल दो। नफ़रत फैल कर वोट बनेगा वो तो बोनस होगा ही।
हरियाणा में गोपाल दास दो महीने से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। अनशन भी करते हैं। गिरफ्तार भी होते रहते हैं। इनके लोग व्हाट्स अप सूचना भेजते रहते हैं। एक अख़बार की क्लिपिंग भेजी है। छपी हुई ख़बर में गोपालदास ने दावा किया है कि सत्तर हज़ार एकड़ गोचरण की ज़मीन पर कब्ज़ा हो गया है। सरकार हटाने का कोई प्रयास नहीं कर रही है। इसी रिपोर्ट में सांसद के सचिव का बयान छपा है कि हमारे पैसा ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है। ऐसा हो है सकता है क्या? अनुराग अग्रवाल नाम के रिपोर्टर ने लिखा है कि हरियाणा में 368 होशालएं हैं। 212 लाख गायें हैं। 1950-52 में चकबंदी के दौरान पंचायती ज़मीन में गोचरान के लिए ज़मीन छोड़ी गई जिस पर कब्जा हो गया। पंचायत और विकास विभाग के पास कब्ज़े की रिपोर्ट भी है लेकिन कोई इस पर कार्रवाई नहीं करना चाहता।
ये तीनों भाजपा शासित राज्य हैं। जब यहां गायों की हालत इतनी बुरी है, तो बाकी राज्यों में क्या हालत होगी? गौ रक्षा के नाम पर आम लोगों को वहशी भीड़ में बदला जा रहा है। जबकि गाय भूख और प्यास से मर रही है। उसकी हालत में कुछ सुधार नहीं हुआ। गाय के लिए वाकई कुछ करने की ज़रूरत है। हमारी आंखों के सामने रोज़ गायें मर रही हैं। हम हैं कि हिन्दु मुसलमान कर रहे हैं। गाय से इतना बड़ा राजनीतिक धोखा कैसे हो सकता है? हरीश वर्मा तो गिरफ्तार हुआ है मगर गाय के चरने की ज़मीन कब कब्ज़े से मुक्त होगी, उसके जीने के लिए कब व्यवस्था होगा। गौरक्षा के नाम पर चीखने वाले ही उसकी हत्या में शामिल हैं। मेरे जैसे लाखों लोग गौरक्षा के लिए दुकान दुकान दान देते हैं,उनके साथ भी धोखा है। पता नहीं उन पैसों का क्या होता होगा। कुछ गौशालाएं अच्छी भी हैं मगर वो राजनीति से दूर चुपचाप अच्छा काम रही हैं। बेरोज़गारी और बुनियादी समस्याओं से भटकाने के लिए गाय का राजनीतिक इस्तमाल हो रहा है। गाय वोट देती है। वोट का फर्ज़ अदा कर रहे हैं, दूध का कर्ज़ नहीं। बीजेपी से सवाल करने का वक्त है क्या उसके लिए गाय सिर्फ एक सियासी धंधा है?

तेहन बेरोजगारी दुनियां में, पांच रुपैये कीलो पीजी

फोन उठाने की आदत से कई बार ख़बरों और जानकरियों के भंडार तक पहुंच जाता हूं। बुधवार को दरभंगा से प्रो झा का फोन आया। पहली बार ही बातचीत हो रही थी, बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर होने लगी। उन्होंने बताया कि प्रोफेसर और लेक्चरर के 70 फीसदी पोस्ट खाली हैं। बी टेक का बच्चा इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ा रहा है। कोई एम टेक करता ही नहीं है। इस पीढ़ी को शिक्षा से मतलब क्यों नहीं हैं। वो तो पीढ़ी जाने कि उसे नौकरी चाहिए या भाषण। वो एक लाख करोड़ के बुलेट ट्रेन पर फिदा है, मगर नहीं पूछती कि शिक्षा स्वास्थ्य का बजट कहां गया तो मैं क्या करूं। 70 फीसदी पोस्ट ख़ाली हैं तो बिहार के बेरोज़गार युवा ज़रूर फार्वर्ड बैकवर्ड या नहीं तो हिन्दू-मुस्लिम में मस्त होंगे। जगह-जगह किसान, आशा वर्कर का प्रदर्शन चल रहा है। आज का युवा राजनीतिक दल के थर्ड क्लास नेताओं के लिए व्हाट्स अप मेसेज फार्वर्ड कर रहा है तो हम क्या करें। आम तौर पर युवाओं के बारे में ऐसे ही सोचने लगा हूं। प्रो झा दिलचस्प इंसान मालूम हो रहे थे। इतनी आसानी से छोड़ा नहीं। उन्होंने प्राइवेट एजुकेशन पर एक कविता सुनाई। उनके अनुसार जनक जी मैथिली के बड़े कवि हैं। मेरी मातृभाषा भोजपुरी है। मैं भोजपुरी के बाद मैथिली सीखना चाहता था। कोशिश की मगर अब वो भी बीस साल पुरानी बात हो गई। प्रो झा ने जनक जी की कविता का स्क्रीन शॉट भेजा है. बहुत मुश्किल नहीं है आप ध्यान से पढ़ेंगे तो समझ आ जाएगी। व्यंग्य है। मुझे तो बहुत हंसी आई।
तेहन बेरोजगारी दुनियां में, पांच रुपैये कीलो पीजी
तैं न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय नीजी
की करता बैसल बौआ सब, चालू कर पब्लिक पठशाला
पम्पलेट,पोस्टर, स्पीकर, येह तीन टा गरम मसाला
ड्रेस,मेकप आकर्षक चाही, एहन जीविका सब सं ईजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
सस्त किबात किनए ननै बच्चा, महग किनबियौ तखने चलती
निनानबे सं कम नंबर ने,कतवो रहौ लाखटा गलती
स्वर-व्यंजन बूझै ने बूझै, कैट-रेटा टा हरमद गीजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
किसिम किसिम फूलक फूलवाड़ी, छछलौआ सीढ़ी आ झुल्ला
लीखो-फेको पुरस्कार दी, लखन गारजन फंसते मुल्ला
भोरे कोचिंग, दिनका टीचिंग, दुन्ना इनकम शुनान पूजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
की कारण सब नीक-नीक इशकूल शुन्न लागए सरकारी
मेधा प्रतिभा रहितो सबठां अपमानित हो छात्र बिहारी
सबहक आदर साउथ-वेस्ट में, हम्मर बच्चा शुद्ध रिफ्यूजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
आइ नियोजित टीचर डगमग, दैन्य दशा डगरा केर भट्टा
काल्हि छला ओ खूब मीठ आ आई भेला आमिल सन खट्टा
कुप्प अन्हार टीचरक फ्यूचर, सगरे गाम गुरुकैं भूजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
अध्यापन टेकनिक केर ज्ञाता, अनुभव, अवलोकन में पक्का
शान्त चित्त सं पढ़ा देता तं, फरजी-सरजी, हक्का-बक्का
गीत कवित्त सभे बिसरी जं, अधपेटू हो रोटी रोजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी
हे गुरुवर वशिष्ठ, सन्दीपन, पढ़ा दियौ ओ पुरना लेशन
दिशा हीन आरत भारत में, सुधरि जैत नवका जनरेशन
कखन पढ़ोत्ता थाकल टीचर, सरकारी लेटर में ब्यूजी
तें न कुकुरमुत्ता सन फड़लै, डेग-डेग विद्यालय निजी

Thursday 19 October 2017

दीपिका पादुकोण ने क्यों दिखाया गुस्सा? केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से कहीं एक्शन लेने की बात

दीपिका पादुकोण ने पद्मावती की रंगोली बर्बाद करने को लेकर बेहद नाराजगी जाहिर करते हुए केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी स्मृति ईरानी से खास अपील की है। दीपिका पादुकोण ने स्मृति ईरानी से अपील करते हुए कहा कि पद्मावती के नाम पर ये तांडव फौरन बंद होना चाहिए।
स्मृति ईरानी
दीपिका पादुकोण ने सरकार से गुहार लगाई है कि वो आए दिन पद्मावती पर हो रहे विरोध को रोकने के लिए कदम उठाए। केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को ट्वीट करते हुए दीपिका ने लिखा है कि ये सब अब रुकना चाहिए और सरकार को इसके खिलाफ कड़ा एक्शन लेना चाहिए।
इस फिल्म की शूटिंग के दौरान करणी सेना ने विरोध किया था और अब एक बार फिर इसका विरोध हुआ है। फिल्म के लिए एक आर्टिस्ट ने 48 घंटे की मेहनत के बाद रंगोली तैयार की थी, जिसे कि कुछ अज्ञात लोगों ने नष्ट कर दिया। इस रंगोली को बनाने वाले सूरत के आर्टिस्ट करण के. का दावा है कि इसे ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते हुए तकरीबन 100 लोगों ने नष्ट किया है।
दीपिका ने एक अन्य ट्वीट में सवालिया लहजे में पूछा कि,’ये कौन लोग हैं? रंगोली नष्ट करने के लिए कौन जिम्मेदार है? यह सब और कब तक चलेगा?’
बता दें कि इस फिल्‍म के राजस्‍थान में लगे सेट पर राजपूत करणी सेना ने हमला कर दिया था, जिसमें संजय लीला भंसाली को भी चोट आई थी। इस हमले की बॉलीवुड ने जमकर आलोचना की थी और उसके बाद इस फिल्‍म की शूटिंग राजस्‍थान की बजाए सेट लगा कर महाराष्‍ट्र में ही की गई।

Wednesday 18 October 2017

महिलाओं पर ‘यौन अपराधों’ को लेकर ‘दिल्ली’ पूरी दुनिया में पहले स्थान पर

देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार ने कई नियम व कानून बनाए। लेकिन कहीं ना कहीं उन नियम कानून पर सवाल उठ ही जाता है। आए दिन किसी ना किसी के घर में महिलाओं को मारा पीटा जाता है। जिसके खिलाफ ना जाने कितनी महिलाएं शिकायत ही नहीं करती है। उनका कहना होता है कि वह उनके घर का मामला है। वहीं कई महिलाएं ऐसी होती है जो घर व बाहर सेक्सुअल असॉसल्ट की शिकार होती हैं। लेकिन वह इस मुद्दे पर आवाज नहीं उठाती हैं।
हाल ही में एक सर्वे हुआ जिसमें भारत की राजधानी दिल्ली में सबसे ज्यादा सेक्सुअल असॉल्ट के मामले सामने आएं हैं। वहीं दिल्ली के बाद ब्राजील के शहर साओ पाउलो में इस तरह के मामले देखने को मिले। इनता ही नहीं इस सर्वे में ये भी बताया गया कि मिस्र की राजधानी कायरो महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक शहर है। वहीं जापान का टोक्यो महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित।
बता दें कि यह सर्वे थॉम्सन रॉयर्टस फाउंडेशन के जरिए करवाया गया है। इस सर्वे में महिलाओं और उनसे जुड़े हुए मामलों पर 19 अलग-अलग देशों की स्थिति को समझा। जिसमें उन 19 देशों की महिलाओं की स्थिति के जो आकड़े सामने आए वो ज्यादा चौकाने वाले नहीं थे। वहीं भारत में संयुक्त राष्ट्र महिला की मुखिया रेबेका रीचमैन टैवर्स ने इस सर्वे पर कहा कि, भारत के लिए यह नतीजे ज्यादा चौकाने वाले नहीं है।
आपको बता दें कि इस सर्वे में 380 विशेषज्ञों से बात की गई थी। जिसमें सेक्सुअल हिंसा, महिलाओं के शोषण, स्वास्थ्य सेवाओं और उनके लिए आर्थिक विकल्प को लेकर सवाल पूछे गए थे। इन सब पर बात करने के बाद ही देशों में महिलाओं कि स्थिति पर सर्वे किया गया।
वहीं मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो मिस्र की राजधानी कायरो को तीसरे नंबर पर रखा गया है क्योंकि सर्वे में इस देश को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश बताया गया है। वहीं दूसरे नंबर पर स्पेन के मेक्सिको और बांग्लादेश के ढाका को रखा गया है। दिल्ली और साओ पाउलो को पहले नंबर पर रखा गया है। क्योंकि यहां पर सेक्सुअल असॉल्ट के मामले ज्यादा देखे गए हैं।
महिलाओं पर बढ़ रहे यौन अपराधों को लेकर पुलिस के आकडें भी ज्यादा चौकाने वाले नहीं है। आकड़ों की माने तो दिल्ली में 2016 में 2155 रेप हुए, जो साल 2012 के मुकाबले 67 प्रतिशत बढ़े हैं। वहीं सरकारी आकड़ें देखे जाएं तो साओ पाउलो में इस साल जुलाई में 2,287 रेप के मामले दर्ज हुए जो पिछले साल के मुताबिक 2,868 थे। रेप के मामलों को लेकर इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च का कहना है कि रेप से जुड़े 10 प्रतिशत मालमे ही सामने आते हैं।