Saturday 25 November 2017

गुजरात चुनाव में बीजेपी का टिकट- कटेगा, मिलेगा और फिर कटेगा

बाजेपी को 2007 में 117 विधायक मिले थे। इनमें से 40 से अधिक विधायकों का टिकट 2012 में काट दिया गया था। इस बार कितनों का कटेगा? हर पार्टी अपनी जीत के लिए रणनीति बनाती है। गुजरात में बीजेपी की जीत की रणनीति एक अहम हिस्सा है विधायकों का टिकट काटना। इस बार भी खूब कटेंगे। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे दल विधायकों के टिकट नहीं काटते हैं। बीजेपी इतना टिकट क्यों काटती है? क्या उसके विधायक जीत कर काम नहीं करते हैं, जनता का सामना नहीं कर सकते, या विधायकों को पता है कि दोबारा टिकट तो मिलना नहीं तो काम क्यों करें? हमने विधानसभा वार नामों की सूची बनानी शुरू की। 55-56 सीटों तक जाकर रूक गया। http://www.elections.in/gujarat पर जाकर देखने लगा। बेशक मुझसे ग़लती हो सकती है इसीलिए आगे तक नहीं देखा। लेकिन जो नतीजे आए वो दिलचस्प हैं। आप उन्हें देखते हुए गेस कर सकते हैं कि किस सीट पर किसका टिकट कटने वाला है और टिकटों की सूची आने पर मिला भी सकते हैं कि गेस सही हुआ या नहीं। अच्छा होता कि सभी सीटों का 2002, 2007 और 2012 के जीते उम्मीदवारों को देख पाता। पर कोई बात नहीं। साबरमती विधानसभा में बीजेपी ने 2002 से कभी किसी उम्मीदवार को दोबारा टिकट नहीं दिया है। इस बार कहीं 2012 के जीते उम्मीदवार का टिकट न कट जाए! धनेरा विधानसभा में भी तीनों चुनाव में अलग अलग उम्मीदवार उतारे हैं। इस सीट पर 2012 में टिकट बदला तो बीजेपी का उम्मीदवार हार गया। इस बार भी यहां किसी नए को ही मिल सकता है। भुज में भाजपा ने 2007 के विधायक को 2012 में नहीं दिया। क्या 2012 के विधायक को टिकट मिलेगा? वाव विधानसभा क्षेत्र में भी भाजपा ने 2012 में 2007 के विधायक का टिकट काट दिया। 2012 वाले को 2017 में टिकट मिलेगा? वडगाम- 2002 में बीजेपी ने श्रीमाली बाबुलाल चेलाभाई को टिकट दिया। कांग्रेस से हार गए। 2007 में बीजेपी ने फकीरभाई राघाभाई वाघेला को टिकट दिया वो जीत गए। राधा भाई 2012 में कांग्रेस से हार गए। मुमकिन यहां का बीजेपी उम्मीदवार नया होगा। पालनपुर विधानसभा- 2002 में बीजेपी के कचोराया कांतिलाल धर्मदास जीते थे। 2007 में बीजेपी ने इन्हें टिकट नहीं दिया। गोविंदभाई माधवलाल प्रजापति को टिकट दिया उन्हें 66,835 वोट मिला और जीत गए, उन्हें 2012 में टिकट मिल गया मगर वे कांग्रेस से हार गए। यहां बीजेपी अबकी बार नए उम्मीदवार को टिकट दे सकती है। दीसा से 2012 में बीजेपी ने 2007 में जीते हुए विधायक का टिकट काट दिया। नया उम्मीदवार कांग्रेस से हार गया। 2014 में जब उपचुनाव हुआ तो बीजेपी के लेबाभाई हार गएं। इसबार यहां से बीजेपी का नया उम्मीदवार हो सकता है। देवदर विधानसभा- 2007 में बीजेपी के विजयी विधायक का टिकट 2012 में कट गया। 2012 में केशाजी शिवाजी चौहान जीत गए। वोट में 27000 की वृद्धि हुई। यहां टिकट कट सकता है? राधनपुर विधानसभा- 1998 से बीजेपी जीत रही है मगर यहां 2007, 2012 में अलग अलग उम्मीदवारों को टिकट दिया। इसलिए इस बार 2012 के उम्मीदवार का टिकट कट सकता है। चनाश्मा विधान सभा- यहां 2012 में भाजपा ने 2007 के जीते हुए विधायक को टिकट नहीं दिया। 2002 के उम्मीदवार को बीजेपी ने 2007 में यहां टिकट नहीं दिया था। यहां के विधायक का टिकट बदल सकता है। पाटन- 2002, 2007, 2012 में बीजेपी ने अलग अलग उम्मीदवार उतारे और सभी जीते। 2002 में आनंदीबेन पटेल इसी सीट से जीती थीं। खेरालु विधानसभा- बीजेपी ने यहां 2002 के उम्मीदवार का 2007 में टिकट काट दिया मगर 2012 में 2007 वाले को टिकट दिया। बीजेपी जीत गई। इस बार इनके टिकट कटने की उम्मीद की जा सकती है। ऊंझा में नारायणभाई लल्लुदास पटेल को 2012 में दिया, 2007 में दिया। दोनों बार जीते। इस बार लल्लुदास जी को टिकट मिलेगा? विसनगर विधानसभा में 2007 और 2012 में टिकट नहीं बदला है। वही उम्मीदवार जीत रहा है। इनका टिकट बदलेगा? मेहसाणा से 2012 में नितिन पटेल जीते। मगर यहां से उन्हें 2007 के जीते हुए उम्मीदवार का टिकट काट कर उतारा गया था। क्या नितिन पटेल इस बार भी मेहसाणा से लड़ेंगे? इदर विधानसभा से 1998 से बीजेपी के रमनभाई वोरा ही जीत रहे हैं। कभी टिकट नहीं बदला। ज़रूर यह उम्मीदवार ज़बरदस्त रहा होगा, क्या इस बार भी इन्हें टिकट मिलेगा या कट जाएगा? जमालपुर से अशोक भट्ट 2002 से जीत रहे हैं। कहीं इनका नंबर तो नहीं कटेगा? दासक्रोई का उम्मीदवार भी 2002 से लगातार जीत रहा है। क्या यहां का उम्मीदवार बना रहेगा या किसी नए को मिलेगा? कलोल गांधीनगर से 2007 और 2012 में एक ही उम्मीदवार जीत रहा है. क्या यहां से उम्मीदवार बदलेगा? एलिस ब्रीज विधानसभा से बीजेपी के रमेश शाह 2007 और 2012 में जीते हैं। इस बार मिलेगा? असारवा में 2007 के जीते उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं मिला। जबकि प्रदीपसिंह भगवतसिंह ज़डेजा 2002 और 2007 में जीत चुके थे। इस बार 2012 के विधायक को टिकट मिलेगा या कटेगा? दासदा विधानसभा में 2007 में जीते हुए उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं दिया। बीजेपी जीत गई। क्या इस बार इनका नंबर कटेगा? बधवान विधासभा से 2007 और 2012 में भाजपा उम्मीदवार जीत रही हैं। क्या 2017 में टिकट मिलेगा? चोटिला में 2007 के उम्मीदवार को 2012 में टिकट नहीं दिया। 2017 में? मोरबी में 2007 से कांतिलाल शिवलाल अमृतिया ही जीत रहे हैं। क्या चौथी बार टिकट मिलेगा। इस बार कट जाने के चांस हैं। विधानसभा क्षेत्र के नामों में त्रुटी हो सकती है। इसे कहीं और छापने से पहले एक बार अपना होमवर्क भी कर लें। इस आधार पर देखा जा सकता था कि बीजेपी कहां कहां उम्मीदवार बदलने वाली है। जब पार्टी इतना काम करती है, सरकार इतना काम करती है तो 30 से 35 उम्मीदवारों का टिकट काटने का क्या मतलब है? क्या पार्टी और सरकार काम करती है मगर विधायक काम नहीं करते हैं? ऐसा कैसे हो सकता है। फिर से एक बार टिकट सब काटते हैं मगर गुजरात में बीजेपी जिस तादाद में टिकट काटती है उस तादाद में कोई नहीं काटता है। आप इस रणनीति के ज़रिए उम्मीदवार तो बदल देते हैं, नए को भी मौका देते हैं मगर जनता किससे हिसाब मांगे।

Monday 13 November 2017

अपनी तरह की यह आख़िरी फ़िल्म है। जब तक ऐसी कोई दूसरी फ़िल्म नहीं बनती है, इसे अंतिम फ़िल्म कहने का जोखिम उठाया जा सकता है। शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने भीतर किसी फ़िल्मकार को इतनी जगह देगा जहां से खड़ा होकर वह अपने कैमरों में उसके अंतर्विरोधों को दर्ज करता चलेगा। यह फ़िल्म राजनीति के होने की प्रक्रिया की जो झलक पेश करती है, वह दुर्लभ है। बहुत पीछे के इतिहास में जाकर नहीं बल्कि तीन चार वर्षों के इतिहास में जाकर जब AN INSIGNIFICANT MAN के पर्दे पर दृश्य चलते हैं तो देखने वाले के भीतर किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। यह फ़िल्म एक दर्शक के तौर पर भी और एक राजनीतिक जीव होने के तौर पर भी देखने वाले को समृद्ध करेगी। हम प्रिंट में ऐसे लेख पढ़ते रहे हैं मगर सिनेमा के पर्दे पर इस तरह का सजीव चित्रण कभी नहीं देखा। मुमकिन है सिनेमा की परंपरा में ऐसी फिल्में बनी हों, जिनके बारे में मुझे इल्म नहीं है। ख़ुश्बू रांका और विनय शुक्ल जब यह फ़िल्म बना रहे थे तब उनसे मिलने का मौका मिला था। तीस साल से भी कम के ये नौजवान जोड़े रात रात भर जाकर आम आदमी पार्टी के बनने की प्रक्रिया को अपने कैमरे में दर्ज कर रहे थे। दर्ज तो कई चैनलों ने भी किए मगर सबने अपने फुटेज का स्वाहा कर दिया, कभी लौट कर फिर से उन तस्वीरों को जोड़ कर देखने की कोशिश नहीं की। इसका कारण भी है। सबसे पहले मीडिया के पास यह सब करने की समझ और योग्यता नहीं है, बाद में लोगों की कमी और संसाधन की कमी का मसला भी शामिल हो जाता है। image आम आदमी पार्टी नई बन रही थी, राजनीति की पुरानी परिपाटी को चुनौती दे रही थी और देने का दावा कर रही थी, शायद इसी जोश में पार्टी ने भीतर आकर ख़ुश्बू और विनय को शूट करने का मौका दे दिया होगा। जितना भी और जहां जहां मौका मिला, उससे आप राजनीतिक प्रक्रिया को काफी करीब से देख सकते हैं। दूसरे दल तो इतनी हिम्मत कभी नहीं करेंगे। इस फ़िल्म को देखते हुए आम आदमी पार्टी के नेता और समर्थकों को असहजता हो सकती है,मगर ऐसी भी असहजता नहीं होगी कि वे फ़िल्म से ही करताने लगें। यह फ़िल्म उनके इरादों को मज़बूत भी करेगी लेकिन पहले धीरे-धीरे कांटे भी चुभाती है। हंसाती भी है और रूलाती भी है। इस फिल्म के कई प्रसंग ख़ूब हंसाते हैं। आप ख़ुद पर, मीडिया पर और नेताओं पर भी हंस सकते हैं। अरविंद केजरीवाल इस फ़िल्म के मुख्य किरदार हैं। एक मामूली इंसान। यह फ़िल्म उन्हें नायक या महानायक की निगाह से नहीं देखती है। एक कैमरा है जो चुपचाप उन्हें देखता रहता है। घूरता रहता है। वह देख रहा है कि कैसे एक मामूली आदमी राजनीति में कदम रख रहा है,हल्का लड़खड़ाता है, फिर संभलता है और दिग्गजों के अहंकार को मात देता है। कैसे उसके सिद्धांत और व्यवहार आपस में टकराते हैं। अरविंद केजरीवाल के आस-पास किस तरह अंतर्विरोध पनप रहे हैं, वे कैसे निकलते हैं और उसके शिकार होते हैं। ख़ुश्बू और विनय ने उसे बहुत ख़ूबसूरती से पकड़ा है। उनके सबके बीच अरविंद कैेसे टिके रहते हैं, नेता होने की अपनी दावेदारी कभी नहीं छोड़ते हैं। कैमरे का क्लोज़ अप कई बार उनके इरादों को पकड़ता है। हारते हुए देखता है और फिर जीतते हुए भी। पब्लिक के सामने जाने से पहले मंच के पीछे नेता का भाव क्या होता है,वह किन बातों को सुनता है और पब्लिक के बीच कैसे रखता है, यह सब आप देखते हुए रोमांचित हो सकते हैं। नेता होने का कौशल क्या होता है,आपको पता चलेगा। यह सब आप दूसरे दलों में या अब आम आदमी पार्टी में भी होते हुए नहीं देख पाएंगे। दरअसल आप इस फिल्म को सिर्फ अन्ना आंदोलन के दौर की निगाह और स्मृतियों से नहीं देख पाएंगे। योगेंद्र और प्रशांत का अलग होना, कुमार विश्वास से दूरी का बनना यह सब तो नहीं है मगर उन्हें देखकर लगता है कि यह सब अलग होने वाले हैं या किए जाने वाले हैं। दरार सिर्फ भीतर से नहीं आ रही थी, बाहर से भी चोट करवाए जा रहे थे ताकि यह नया संगठन उभरने से पहले टूट जाए। आज तक यह प्रक्रिया जारी है और आगे भी जारी रहेगी। इस फ़िल्म में मीडिया के भीतर मीडिया का संसार दिखता है। आम आदमी पार्टी अपना मीडिया रच रही थी तो मीडिया भी आम आदमी पार्टी रच रहा था। दोनों अपनी अपनी धार से एक दूसरे को काट भी रहे थे, तराश भी रहे थे। उसी दौरान मीडिया आम आदमी पार्टी को कुचलने का हथियार भी बनता है। वो पुराने दलों के साथ खड़ा दिखाई देने लगता है। यह सब इतनी तेज़ी से बदलते हैं कि आपकी स्मृतियां सहेज कर रखने में असफल हो जाती हैं। चुनावी सर्वे आते हैं और खारिज करते है, उनके आने और ध्वस्त हो जाने के बीच एंकर या रिपोर्टर किस तरह कैमरे के सामने निहत्था और नंगा खड़ा है, ख़ुश्बू और विनय को यह सब पकड़ने के लिए शुक्रिया अदा करना चाहिए। यह फिल्म बता रही है कि कैसे मीडिया भी अपने वक्त की राजनीति को पकड़ने में खोखला हो जाता है। खंडहर की तरह भरभरा कर गिर जाता है। एंकरों के वाक्य कैसे चतुराई से बदलते चले जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे देखने वाले पर एक अहसासन करते हैं। ख़ुद जोकर लगते हैं और दर्शकों को ख़ूब हंसाते हैं। बाद में वही मीडिया आप के ख़िलाफ़ दूसरे दलों का हथियार बन जाता है। यह फ़िल्म सबको हंसाती है। दर्शक को,आप के कार्यकर्ता को, समर्थक को, मतदाता को, विरोधी को और मीडिया को भी। यह फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक अरविंद केजरीवाल को महानायक या खलनायक के चश्मे से कहीं नहीं देखती है जैसा कि उस वक्त मीडिया और इस वक्त मीडिया करता है। बस एक कैमरा है जो चुपचाप देख रहा है कि क्या यह मामूली सत्ता के जमे जमाए खिलाड़ियों को मात दे सकता है, इस प्रक्रिया में वह ख़ुद भी मात खाता है मगर मात दे देता है। बिजली और पानी का बिल आधा करने का वादा पूरा कर देता है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को यह फ़िल्म देखनी चाहिए। टॉनिक का काम करेगी। एक राजनीतिक दल वैसे भी दिन रात अपनी आलोचनाओं से घिरा रहता है, उसी में जीता मरता है तो फिर इस फ़िल्म के साथ भी उसे जीना-मरना चाहिए। इस फ़िल्म से उभरने वाली नॉस्ताल्जिया उभरेगी आप के नेताओं को भी हंसाएंगी, रूलाएगी और चुप कराएगी। ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। image इस फिल्म में योगेंद्र यादव अपने आप दूसरे नायक के रूप में दिखते हैं। फिल्म की एडिटिंग उन्हें हमेशा अरविंद से दूर रखती है और दूसरे छोर पर रखती है। जीवंत फुटेज की एडिटिंग का कमाल देखिए। ऐसा लगता है कि फिल्म आगे होने वाले घटनाक्रम का दस्तावेज़ पेश कर रही हो। योगेंद्र के बाहर निकाले जाने या बाहर हो जाने का रास्ता ढूंढ रही हो। ख़ुश्बू और विनय ने फिल्म की एडिटिंग इस तरह की है कि दोनों साथ-साथ चलते हुए भी अलग लगें। राजनीति में जो नया होता है उसे नैतिकता ही सबसे पहले मारती है। छोटी छोटी नैतिकताएं उनका बड़ा इम्तहान ले लेती हैं। जबकि जमे जमाए दल ऐसी नैतिकताओं को धुएं में उड़ाकर चल देते हैं। कर लो जो करना है। हमीं हैं, हमीं रहेंगे। AN INSIGNIFICANT MAN भारत के सिनेमाई इतिहास की एक जादुई फ़िल्म है। इसमें कोई भी कलाकार नहीं है बल्कि जो वास्तविक किरदार हैं, वही कलाकार की भूमिका में हैं। आम आदमी पार्टी इस बात का गर्व ले सकती है कि उसने अपने भीतर घट रही घटनाओं को दर्ज करने के लिए किसी फिल्मकार को जगह दी, अब हो सकता है कि वह ऐसा न कर सके जैसा कि दूसरी पार्टी भी नहीं करना चाहेंगे फिर भी एक प्रयोग के तौर पर ही सही, उनके लिए यह बहुमूल्य दस्तावेज़ तो है ही। अरविंद केजरीवाल जब आंदोलनकारी से नेता बन रहे थे तब हालात और व्यावहारिकताओं पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश में वो कैसे अंतर्रिविरोधों के शिकार हो रहे थे, इसका जीवंत दस्तावेज़ है और यह फ़िल्म उनके ख़िलाफ़ नहीं बल्कि उनके आगे की यात्रा के लिए एक अच्छी डिक्शनरी है। यही बात योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण और शाज़िया इल्मी पर लागू होती है। फ़िल्म राजनीति का प्रमाणिक दस्तावेज़ है यह कहने से थोड़ा बचूंगा फिर भी कुछेक मामलों में यह प्रमाणिक दस्तावेज़ है। ख़ुश्बू और विनय ने अपने महीनों के फुटेज से जो चुना है, उस पर आज का संदर्भ हावी है। उन हज़ारों घंटों के फुटेज से डेढ़ घंटे की फ़िल्म बनाई गई है। ज़ाहिर है नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा कट-छंट गया होगा। फिल्म के सारे फुटेज असली हैं मगर एडिटिंग में एक सिनेमाई कल्पना हावी है। कई दृश्य शानदार हैं। कैमरे का कमाल ऐसा है कि आप हतप्रभ रह जाएंगे। फ़िल्म के बारे में सब नहीं लिखना चाहता, मगर ऐसी फिल्म आपको दोबारा देखने को शायद ही मिले, इसलिए देख आइयेगा।

Monday 6 November 2017

फिल्म पद्मावती को लेकर विरोध क्यों ? बीजेपी और राजपूत समुदाय ने की प्रतिबन्ध लगाने की मांग

प्रतिबन्ध लगाने की मांग फिल्म पद्मावती अभी रिलीज़ भी नहीं हुई और फिल्म को लेकर हो रहा है बड़ा विरोध |पद्मावती 1 दिसंबर को रिलीज़ होने वाली है इसके ट्रेलर को 4 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया है |लोगो को ट्रेलर काफी पसंद आ रहा है और समीक्षको द्वारा काफी सराहा जा रहा है | नया गाना घूमर भी लोगो को भा रहा है |शाहिद कपूर और रणवीर सिंह का किरदार भी लोगो को खूब पसंद आ रहा है | इसके उलट राजपूत समाज के कुछ लोग इसका विरोध कर रहे है | गुजरात बीजेपी ने फिल्म रिलीज़ होने से पहले राजपूत समाज के प्रतिनिधियों को दिखाने की मांग की है | गुजरात चुनाव को देखते हुए बीजेपी ने फिल्म रिलीज़ टालने की मांग भी की है | आपको बता दू की गुजरात में 9 और 14 दिसंबर को वोटिंग होनी है | महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्री जयकुमार तो फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने तक की बात कह रहे है | इसे आप नेताओ की मांग कहे या दोहरी राजनीति समझ से परे है | करणी सेना ( राजपूत समुदाय के लोग ) का कहना है कि संजय लीला भंसाली फिल्म के जरिये इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे है | जी हां मै उसी करणी सेना की बात कर रहा हु जिसने कुछ महीनो पहले राजस्थान में चल रही फिल्म की शूटिंग का विरोध किया था और संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी उसके बाद भंसाली ने मुंबई में ही फिल्म की अधूरी शूटिंग पूरी की | खैर अब फिल्म रिलीज़ होने वाली है तो मामला गर्माना बड़ी बात नहीं है | ऐसा पहले भी होता रहा है फिल्मो को लेकर होने वाले विरोध फिल्म निर्माताओ का फायदा ही कर रहे है क्योकि जिन फिल्मो का पिछले कुछ सालो में विरोध हुआ है उन फिल्मो का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड काफी अच्छा रहा है | फिल्म बाजीराव मस्तानी की रिलीज़ से पहले भी भंसाली पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप लगे थे |फिल्म के एक गाने का विरोध भी हुआ मगर इतने विरोध के बाद भी फिल्म की कमाई उम्मीद से ज्यादा रही और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई | बीजेपी के साथ कांग्रेस भी कह रही है कि फिल्म को करणी सेना की अनुमति के बाद ही रिलीज़ किया जाए | बात यह है कि करणी सेना को रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच सपने वाले दृश्य से ऐतराज है | करणी सेना का कहना है कि पद्मावती कभी भी अलाउद्दीन खिलजी से नहीं मिली थी |मुंबई में फिल्म पद्मावती की रिलीज़ से पहले रांगोली बनाकर प्रचार किया जा रहा था जिसे राजपूत समुदाय के लोगो ने मिटा दिया | क्या यह फिल्म सच में राजपूतो की भावनाओ को आहत कर सकती है ? या फिर इसे पब्लिसिटी पाने का मौका कहा जाए |यदि यह फिल्म सच में किसी समुदाय के लोगो को आहत कर रही है तो फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली को आगे आना चाहिए और इस विषय पर अपनी राय रखना चाहिए | फिल्म देखते वक्त लोगो को इतिहास की समझ नहीं होती इसलिए वो उस पर भरोसा कर लेते है जो दिखाया जा रहा है| उस फिल्म की कहानी के इतिहास के बारे में जानने की कोशिश भी नहीं करते चाहे कहानी काल्पनिक ही क्यों न हो | हमारी फिल्म इंडस्ट्री पिछले कुछ सालो में काफी बदली है | फिल्मो में अब हम नई तकनीक का इस्तेमाल करने भी लगे है और बाहुबली जैसी हजार करोड़ की कमाई करने वाली फिल्म भी बनाने लगे है लोगो का फिल्म देखने का नज़रिया बदला है | आज के दर्शक फिल्म को बिना रिव्यु पढ़े देखने नहीं जाते | फिल्म निर्देशक दर्शको को गलत नहीं दिखा सकते और लाखो दर्शको का भरोसा नहीं तोड़ सकते |भंसाली साहब और राजपूत समुदाय को इस पर चर्चा करना चाहिए और समस्या का हल निकालना चाहिए | वैसे भी आखिर में जीत फिल्म की ही होती है कारण है हम हमारी फिल्म इंडस्ट्री और कलाकारों से बहुत प्यार करते है #mjshajapur

Thursday 2 November 2017

जयस जिसने मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके से एबीवीपी के गढ़ को ध्वस्त कर दिया

image मध्यप्रदेश में छात्र संगठन के चुनाव में एबीवीपी की जीत की ख़बर छाई हुई है। जबलपुर से एनएसयूआई की जीत की खबर भी को जगह मिली है। लेकिन एक ऐसे छात्र संगठन की ख़बर दिल्ली तक नहीं पहुंची है। पत्रिका अखबार के धार संस्करण ने इसे पहले पन्ने पर लगाया है कि धार में जयस ने एबीवीपी के वर्चस्व को समाप्त कर दिया है। इस संगठन का नाम है जयस। जय आदिवासी युवा संगठन। डॉ आनंद राय के ट्वीट से ख़बर मिली कि मध्य प्रदेश में कुछ नया हुआ है। image 2013 में डॉ हीरा लाल अलावा ने इसे क़ायम किया है। हीरा लाल क़ाबिल डॉक्टर हैं और एम्स जैसी जगह से अपने ज़िले में लौट आए। चाहते तो अपनी प्रतिभा बेचकर लाखों कमा सकते थे मगर लौट कर गए कि आदिवासी समाज के बीच रहकर चिकित्सा करनी है और नेतृत्व पैदा करना है। 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर डॉ हीरा लाल की रैली का वीडियो देखकर हैरत में पड़ गया था। भारत में नेतृत्व दिल्ली की मीडिया फैक्ट्री में पैदा नहीं होते हैं। तीन-चार साल की मेहनत का नतीजा देखिए, आज एक नौजवान डाक्टर ने संघ के वर्चस्व के बीच अपना परचम लहरा दिया है। जयस ने पहली बार छात्र संघ का चुनाव लड़ा और शानदार जीत हासिल की है। दरअसल, मध्यप्रदेश छात्र संघ के नतीजों की असली कहानी यही है। बाकी सब रूटीन है। डॉ अलावा की तस्वीर आप देख सकते हैं। image मध्य प्रदेश का धार, खरगौन, झाबुआ, अलीराज पुर आदिवासी बहुल ज़िला है। यहां कुछ अपवाद को छोड़ दें तो सभी जगहों पर जयस ने जीत हासिल की है। धार ज़िले के ज़िला कालेज में पहली बार जयस के उम्मीदवार प्रताप डावर ने अध्यक्ष पद जीता है। बाकी सारे पद भी जयस के खाते में गए हैं। प्रताप धार के ही टांडा गांव के पास तुकाला गांव के हैं जहां आज भी पानी के लिए सात किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। प्रताप अपने गांव का एकमात्र और पहला स्नातक है। इस वक्त एम ए इकोनोमिक्स का छात्र हैं। प्रताप ने एबीवीपी और एन एस यू आई के आदिवासी उम्मीदवारों को हरा दिया है। दस साल से यहां एबीवीपी का क़ब्ज़ा था। धार के कुकसी तहसील कालेज में जीत हासिल की है। गणवाणी कालेज में भी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष समेत सारी सीटें जीत ली हैं। धर्मपुरी तहसील के शासकील कालेज में चारों उम्मीदवार जीत गए। अध्यक्ष उपाध्यक्ष और सचिव का पद जीता है। मनावर तहसील के कालेज की चारों शीर्ष पदों पर जयस ने जीत हासिल की है। गणवाणी में सारी सीटें जीते हैं। बाघ कालेज की सारी सीटें जीत गए हैं। अलीराजपुर के ज़िला कालेज की पूरी सीट पर जयस ने बाज़ी मारी है। खरगौन ज़िले के ज़िला कालेज में ग्यारह सीटे जीते हैं। जोबट और बदनावर कालेज में भी जयस ने जीत हासिल की है। इन सभी सीटों पर जयस ने एबीवीपी के आदिवासी उम्मीदवारों को हराया है। माना जाता है कि आदिवासी इलाकों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपना सामाजिक राजनीतिक आधिपत्य जमा लिया है, मगर जयस ने अपने पहले ही चुनाव में संघ और एबीवीपी को कड़ी चुनौती दी है। जयस की तरफ से धार में काम करने वाले शख्स ने कहा कि संघ हमारा इस्तमाल करता है। हमारे अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ता है। हम यह सब समझ गए हैं। जहां जहां जयस ने हराया है वहां पर एबीवीपी का ही क़ब्ज़ा था। धार से जयस के प्रभारी अरविंद मुझालदा ने बताया कि धार ज़िला कालेज की जनभागीदारी समिति की अध्यक्ष पूर्व केंद्रीय मंत्री विक्रम वर्मा की पत्नी नीना वर्मा हैं। लीला वर्मा भाजपा विधायक भी हैं। इस कालेज में उनका काफी दबदबा था जिसे जयस ने ध्वस्त कर दिया। सह-सचिव के पद को छोड़ किसी भी पद पर एबीवीपी को नहीं जीतने दिया। अरविंद का कहना था कि इलाके में भाजपा का इतना वर्चस्व है कि आप कल्पना नहीं कर सकते इसके बाद भी हम जीते हैं। हमने सबको बता दिया है कि आदिवासी समाज ज़िंदा समाज है और अब वह स्थापित दलों के खेल को समझ गया है। हमारे वोट बैंक का इस्तमाल बहुत हो चुका है। अब हम अपने वो का इस्तमाल अपने लिए करेंगे। जयस के ज़्यादातर उम्मीदवार पहली पीढ़ी के नेता हैं। इनके माता पिता अत्यंत निम्न आर्थिक श्रेणी से आते हैं। कुछ के सरकारी नौकरियों में हैं। धर्मपुरी कालेज के अध्यक्ष का चुनाव जीतने वाले प्यार सिंह कामर्स के छात्र हैं। कालेजों में आदिवासी छात्रों की स्कालरशिप कभी मिलती है कभी नहीं मिलती है। जो छात्र बाहर से आकर किराये के घर में रहते हैं उनका किराया कालेज को देना होता है मगर छात्र इतने साधारण पृष्ठभूमि के होते हैं कि इन्हें पता ही नहीं होता कि किराये के लिए आवेदन कैसे करें। कई बार कालेज आवेदन करने के बाद भी किराया नहीं देता है। आदिवासी इलाके के हर कालेज में 80 से 90 फीसदी आदिवासी छात्र हैं। इनका यही नारा है जब संख्या हमारी है तो प्रतिनिधित्व भी हमारा होना चाहिए। जयस आदिवासी क्षेत्रों के लिए एक बुनियादी और सैद्दांतिक लड़ाई लड़ रहा है। डॉ हीरा लाल का कहना है कि कश्मीर की तरह संविधान ने भारत के दस राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों और राज्यों के लिए पांचवी अनुसूचि के तहत कई अधिकार दिए हैं। उन अधिकारों को कुचला जा रहा है। पांचवी अनुसूचि की धारा 244(1) के तहत आदिवासियों को विशेषाधिकार दिए गए हैं। आदिवासी अपने अनुसार ही पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों में योजना बनवा सकते हैं। इसके लिए ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल होती है जिसमें आदिवासी विधायक और सांसद होते हैं। राज्यपाल इस काउंसिल के ज़रिए राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते हैं कि आदिवासी इलाके में सही काम हो रहा है या नहीं। मगर डाक्टर हीरा लाल ने कहा कि ज़्यादातर ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल का मुखिया आदिवासी नहीं हैं। हर जगह ग़ैर आदिवासी मुख्यमंत्री इसके अध्यक्ष हो गए हैं क्योंकि मुख्यमंत्रियों ने खुद को इस काउंसिल का अध्यक्ष बनवा लिया है। डॉ हीरा लाल और उनके सहयोगियों से बात कर रहा था। फोन पर हर दूसरी लाइन में पांचवी अनुसूचि का ज़िक्र सुनाई दे रहा था। नौजवानों का यह नया जत्था अपने मुद्दे और ख़ुद को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार परिभाषित कर रहा है। पांचवी अनुसूचि की लड़ाई आदिवासी क्षेत्रों को अधिकार देगी लेकिन उससे भी ज़्यादा देश को एक सशक्त नेतृत्व जिसकी वाकई बहुत ज़रूरत है।