Wednesday 26 September 2018

90,000 करोड़ की डिफाल्टर IL&FS कंपनी डूबी तो आप भी डूबेंगे

IL&FS ( INFRASTRUCTURE LEASING AND FINANCIAL SERVICES) का नाम बहुत लोगों ने नहीं सुना होगा। यह एक सरकारी क्षेत्र की कंपनी है जिसकी 40 सहायक कंपनियां हैं। इसे नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी की श्रेणी में रखा जाता है। जो बैंकों से लोन लेती हैं। जिसमें कंपनियां निवेश करती हैं और आम जनता जिसके शेयर ख़रीदती हैं। इस कंपनी को कई रेटिंग एजेंसियों से अति सुरक्षित दर्जा हासिल है। AA PLUS की रेटिंग हासिल है। इस कंपनी बैंको से लोन लेती है। लोन के लिए संपत्ति गिरवी नहीं रखती है। काग़ज़ पर गारंटी दी जाती है कि लोन चुका देंगे। चूंकि इसके पीछे भारत सरकार होती है इसलिए इसकी गारंटी पर बाज़ार को भरोसा होता है। मगर एक हफ्ते के भीतर इसकी रेटिंग को AA PLUS से घटाकर कूड़ा करकट कर दिया गया है। अंग्रेज़ी में इसे जंक स्टेटस कहते हैं। अब यह कंपनी जंक यानी कबाड़ हो चुकी है। जो कंपनी 90,000 करोड़ लोन डिफाल्ट करने जा रही हो वो कबाड़ नहीं होगी तो क्या होगी। ज़ाहिर है इसमें जिनका पैसा लगा है वो भी कबाड़ हो जाएंगे। प्रोविडेंड फंड और पेंशन फंड का पैसा लगा है। यह आम लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा है। डूब गया तो सब डूबेंगे। इसमें म्युचुअल फंड कंपनियां भी निवेश करती हैं। काग़ज़ पर लिखे वचननामे पर बैंकों ने IL&FS और उसकी सहायक कंपनियों को लोन दिए हैं। अब वो काग़ज़ रद्दी का टुकड़ा भर है। इस 27 अगस्त से जब यह ग़ैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी तय समय पर लोन नहीं चुका पाई, डेडलाइन मिस करने लगी तब शेयर मार्केट को सांप सूंघ गया। 15 सितंबर से 24 सितंबर के बीच सेंसेक्स 1785 अंक गिर गया। नॉन बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के शेयर धड़ाम बड़ाम गिरने लगे। स्माल इंडस्ट्री डेवलपमेंट बैंक आफ इंडिया (SIDBI) ने IL&FS और उसकी सहायक कंपनियों करीब 1000 करोड़ का कर्ज़ दिया है। 450 करोड़ तो सिर्फ IL&FS को दिया है। बाकी 500 करोड़ उसकी दूसरी सहायक कंपनियो को लोन दिया है। सिडबी ने इन्साल्वेंसी कोर्ट में अर्ज़ी लगाई है ताकि इसकी संपत्तियां बेचकर उसका लोन जल्दी चुकता हो। एक डूबती कंपनी के पास कोई अपना पैसा नहीं छोड़ सकता वर्ना सिडबी भी डूबेगी। दूसरी तरफ IL&FS और उसकी 40 सहायक कंपनियों ने पंचाट की शरण ली है। इस अर्ज़ी के साथ उसे अपने कर्जे के हिसाब किताब को फिर से संयोजित करने का मौका दिया जाए। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक इसका फैसला नहीं आएगा, यह कंपनी अपना लोन नहीं चुकाएगी। तब तक सबकी सांसें अटकी रहेंगी। अब सरकार ने इस स्थिति से बचाने के लिए भारतीय जीवन बीमा को बुलाया है। IL&FS में सरकार की हिस्सेदारी 40.25 प्रतिशत है। भारतीय जीवन बीमा की हिस्सेदारी 25.34 प्रतिशत है। बाकी भारतीय स्टेट बैंक, सेंट्रल बैंक और यूटीआई की भी हिस्सेदारी है। हाल के दिनों में जब आई डी बी आई पर नान परफार्मिंग एसेट NPA का बोझ बढ़ा तो भारतीय जीवन बीमा को बुलाया गया। भारतीय जीवन बीमा निगम के भरोसे कितनी डूबते जहाज़ों को बचाएंगे, किसी दिन अब भारतीय जीवन बीमा के डगमगाने की ख़बर न आ जाए। भारतीय जीवन बीमा निगम के चेयरमैन ने कहा है कि IL&FS को नहीं डूबने देंगे। IL&FS ग़ैर बैंकिंग वित्तीय सेक्टर की सबसे बड़ी कंपनी है। इस सेक्टर पर बैंकों का लोन 496,400 करोड़ है। अगर यह सेक्टर डूबा तो बैंकों के इतने पैसे धड़ाम से डूब जाएंगे। मार्च 2017 तक लोन 3,91,000 करोड़ था। जब एक साल में लोन 27 प्रतिशत बढ़ा तो भारतीय रिज़र्व बैंक ने रोक लगाई। सवाल है कि भारतीय रिज़र्व बैंक इतने दिनों से क्या कर रहा था। जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक ही इन वित्तीय कंपनियों की निगरानी करता है। म्यूचुअल फंड का 2 लाख 65 हज़ार करोड़ लगा है। हमारे आपके पेंशन और प्रोविडेंड फंड का पैसा भी इसमें लगा है। इतना भारी भरकम कर्ज़दार डूबेगा तो क़र्ज़ देने वाले, निवेश करने वाले सब के सब डूबेंगे। IL&FS का ज़्यादा पैसा सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में लगा है। इसके डूबने से तमाम प्रोजेक्ट अधर में लटक जाएंगे। हुआ यह है कि टोल टैक्स की वसूली का अनुमान ज़्यादा लगाया गया मगर उनकी वसूली उतनी नहीं हो पा रही है। इससे प्रोजेक्ट में पैसा लगाने वाली कंपनियां अपना लोन वापस नहीं कर पा रही हैं। इन्हें लोन देने वाली IL&FS भी अपना लोन वापस नहीं कर पा रही है। हमने इस लेख के लिए बिजनेस स्टैनडर्ड और इंडियन एक्सप्रेस की मदद ली है। मुझे नहीं पता कि आपके हिन्दी अख़बारों में इस कंपनी के बारे में विस्तार से रिपोर्टिंग है या नहीं। पहले पन्ने पर इसे जगह मिली है या नहीं। दुनिया के किसी भी देश में सरकार की कोई कंपनी संकट में आ जाए और उसमें जनता का पैसा लगा हो तो हंगामा मच जाता है। भारत में ऐसी ख़बरों को दबा कर रखा जा रहा है। तभी बार बार कह रहा हूं कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। सूचना देने के नाम पर इस तरह से सूचना देते हैं कि काम भर हो जाए। बस सरकार नाराज़ न हो जाए। लेकिन आम मेहनतकशन लोगों के प्रोविडेंड फंड और पेंशन फंड का पैसा डूबने वाला हो, उसे लेकर चिन्ता हो तो क्या ऐसी ख़बरों को पहले पन्ने पर मोटे मोटे अक्षरों में नहीं छापना चाहिए था?

Tuesday 25 September 2018

2019 के चुनावी साल में मीडिया की लाश आपके घर आने वाली है, आपकी क्या तैयारी है

2019 के चुनाव में अब 9 महीने रह गए हैं। अभी से लेकर आख़िरी मतदान तक मीडिया के श्राद्ध का भोज चलेगा। पांच साल में आपकी आंखों के सामने इस मीडिया को लाश में बदल दिया गया। मीडिया की लाश पर सत्ता के गिद्ध मंडराने लगे हैं। बल्कि गिद्धों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि लाश दिखेगी भी नहीं। अब से रोज़ इस सड़ी हुई लाश के दुर्गन्ध आपके नथुनों में घुसेंगे। आपके दिमाग़ में पहले से मौजूद सड़न को खाद देंगे और फिर सनक के स्तर पर ले जाने का प्रयास करेंगे जहां एक नेता का स्लोगन आपका स्लोगन हो जाएगा। मरा हुआ मीडिया मरा हुआ नागरिक पैदा करता है। इस चुनावी साल में आप रोज़ इस मीडिया का श्राद्ध भोज करेंगे। श्राद्ध का महाजश्न टीवी पर मनेगा और अखबारों में छपेगा। 2019 का साल भारत के इतिहास में सबसे अधिक झूठ बोलने का साल होगा। इतने झूठ बोले जाएंगे कि आपके दिमाग़ की नसें दम तोड़ देंगी। न्यूज़ चैनल आपकी नागरिकता पर अंतिम प्रहार करेंगे। ये चैनल अब जनता के हथियार नहीं हैं। सरकार के हथियार हैं। चैनलों पर बहस के नक़ली मुद्दे सजाए जाएंगे। बात चेहरे की होगी, काम की नहीं। चेहरे पर ही चुनाव होना है तो बॉलीवुड से किसी को ले आते हैं। प्रवक्ता झूठ से तमाम बहसों को भर देंगे। किसी सवाल का सीधा जवाब नहीं होगा। भरमाने का महायुद्ध चलेगा। भरमाने का महाकुंभ होगा। चलो इस जनता को अब अगले पांच साल के लिए भरमाते हैं। जनता झूठ की आंधियों से घिर जाएगी। निकलने का रास्ता नहीं दिखेगा। मीडिया उसे गड्ढे में गिरने के लिए धक्का दे देगा। जनता गड्ढे में गिर जाएगी। 2019 का चुनाव जनता के अस्तित्व का चुनाव है। उसे अपने अस्तित्व के लिए लड़ना है। जिस तरह से मीडिया ने इन पांच सालों में जनता को बेदखल किया है, उसकी आवाज़ को कुचला है, उसे देखकर कोई भी समझ जाएगा कि 2019 का चुनाव मीडिया से जनता की बेदखली का आखिरी धक्का होगा। टीवी की बहस में हर उस आवाज़ की हत्या होगी जो जनता की तरफ से उठेगी। छोटे से कैंपस में नकली जनता आएगी। वो ताली बजाएगी। चेहरे और नेता के नाम पर। कुर्सी फेंक कर चली जाएगी। हंगामा ही ख़बर होगा और ख़बर का हंगामा। मुद्दों की जगह प्रचार के चमत्कार होंगे। प्रचार के तंत्र के सामने लोकतंत्र का लोक मामूली नज़र आने लगेगा। धर्म के रूपक राजनीतिक नारों में चढ़ा दिए जाएंगे। आपके भीतर की धार्मिकता को खंगाला जाएगा। उबाला जाएगा। इस चुनाव में नेता आपको धर्म की रक्षा के लिए उकसाएंगे। हिन्दू मुस्लिम डिबेट चरम पर होगा। इस डिबेट का एक ही मकसद है। बड़ी संख्या में युवाओं को दंगाई बनाओ। दंगों के प्रति सहनशील बनाओ। उनके मां-बाप की मौन सहमति इन युवाओं को ऊर्जा देगी। भारत एक नए दौर में जा रहा है। हत्याओं के प्रति सहनशील भारत। बलात्कार के प्रति सहनशील भारत। बस उसकी सहनशीलता तभी खौलेगी जब अपराधी का धर्म अलग होगा। बलात्कार और हत्या की शिकार का धर्म अलग होगा तो कोई बात नहीं। धर्म से नहीं बहकेंगे तो पाकिस्तान के नाम पर बहकाया जाएगा। भारत में सांप्रदायिकता पारिवारिक हो चुकी है। मां बाप और बच्चे खाने की मेज़ पर सांप्रदायिकता से सहमति जताते हैं। नफ़रत सामाजिक हो चुकी है। इसी की जीत का साल होगा 2019। इसी की हार का साल होगा 2019। मुकाबला शुरू हुआ है। अंजाम कौन जानता है। मेरी समझ से 2019 का चुनाव जनता के नागरिक होने के बोध की हत्या का साल होगा। जनता खुद ही पुष्टि करेगी कि हां हमारी हत्या हो चुकी है और हम मर चुके हैं। अब हमें ज़ुबान की ज़रूरत नहीं है। अपनी आवाज़ की ज़रूरत नहीं है। प्रचंड प्रचार के संसाधनों के बीच आखिर जनता ज़िंदा होने का सबूत कैसे देगी। सबके बस की बात नहीं है झूठ की आंधी को समझना और उससे लड़ना। मुख्यधारा के प्राय सभी मीडिया संस्थानों का मैदान साफ है। सरकार के दावों को ज़मीन से जांचने वाले पत्रकार समाप्त हो चुके हैं। गोदी मीडिया के गुंडे एंकर आपको ललकारेंगे। आपके दुख पर पत्थर फेंकेंगे और आपके हाथ में माला देंगे कि पहना दो उस नेता के गले में जिसकी तरफदारी में हम चीख रहे हैं। जनता इस चुनाव में मीडिया हार जाएगी। मीडिया की चालाकी समझिए। वो चुनावी साल में अपनी री-ब्रांडिंग कर रहा है। उसे पता है कि जनता को मालूम है कि मीडिया गोदी मीडिया हो गया था। उसके एंकरों की साख समाप्त हो चुकी है। इसलिए बहुत तेज़ी से मीडिया हाउस अपनी ब्रांडिंग नए सिरे से करेंगे। सच को लेकर नए नए नारे गढ़े जाएंगे। मीडिया जनता के लिए आंदोलनकारी की भूमिका में आएगा। आप झांसे में आएंगे। ज़मीन पर जाकर दावों की परीक्षा नहीं होगी क्योंकि इसमें जोखिम होगा। सरकार को अच्छा नहीं लगेगा। भारत का मीडिया खासकर न्यूज़ चैनल भारत के लोकतंत्र की हत्या करने में लगे हैं। यकीन न हो तो यू ट्यूब पर जाकर आप इन पांच साल के दौरान हुए बहसों को निकाल कर देख लें। आपको पता चल जाएगा कि ये आपको क्या बनाना चाहते थे। आपको यह भी पता चलेगा कि जो बनाना चाहते थे, उसका कितना प्रतिशत बन पाए या नहीं बन पाए। आप कुछ नहीं तो प्रधानमंत्री मोदी के दो इंटरव्यू देख लीजिए। एक लंदन वाला और एक पकौड़ा वाला। आपको शर्म आएगी। अगर शर्म आएगी तो पता चलेगा कि आपके भीतर की नागरिकता अभी बची हुई है। अगर नहीं आएगी तो कोई बात नहीं। री-ब्रांडिंग के इस खेल में विश्वसनीयता खो चुके एंकरों से दूरी बनाने की रणनीति अपनाई जाएगी। चैनलों में काफी बदलाव होगा। एंकरों के स्लाट बदलेंगे। कार्यक्रम के नाम बदलेंगे। मुमकिन है कि इंटरव्यू के लिए नए एंकर तलाशे जाएं। हो सकता है मुझ तक भी प्रस्ताव आ जाए। यह सब खेल होगा। सत्ता इस्तमाल करने के लिए लोगों को खोज रही है। बहुत चालाकी से गोदी मीडिया आपको गोदी जनता में बदल देगा। जनता क्या कर सकती है? मेरी राय में उसे पहली लड़ाई खुद को लेकर लड़नी चाहिए। उसे 2019 का चुनाव अपने लिए लड़ना होगा। वह हिन्दी के अख़बारों को ग़ौर से देखे। दूसरे अख़बारों को भी उसी निर्ममता के साथ देखे। किस पार्टी का विज्ञापन सबसे ज़्यादा है। किस पार्टी के नेताओं का बयान सबसे ज़्यादा है। अखबारों के पत्रकार नेताओं के दावों को अपनी तरफ से जांच कर रहे हैं या सिर्फ उन्हें जस का तस परोसने की चतुराई कर रहे हैं। जब भी आप न्यूज़ चैनल देखें तो देखें कि प्रधानमंत्री की रैली कितनी बार दिखाई जाती है। कितनी देर तक दिखाई जाती है। उनके मंत्रियों की रैली कितनी बार दिखाई जाती है। कितनी देर तक दिखाई जाती है। फिर देखिए कि विपक्ष के नेताओं की रैली कितनी बार दिखाई जाती है। कितनी देर तक दिखाई जाती है। बात बार और देर की नहीं बात है कि मुद्दों को रखने की जिस पर नेता जवाब दें। न कि नेताओं के श्रीमुख से निकले बकवासों को मुद्दा बनाए। आपको पता चलेगा कि आने वाला भारत कैसा होने जा रहा है। मरे हुए मीडिया के साथ आप इस चुनावी साल में प्रवेश कर रहे हैं। इसलिए इस मीडिया को परखिए। इम्तहान पत्रकार दे रहा है और प्रश्न पत्र की सेटिंग मालिक कर रहे हैं। इस खेल को समझने का साल है। इस चुनाव में न्यूज़ चैनल और अख़बार विपक्ष की हत्या करेंगे। विपक्ष भी अपनी हत्या होने देगा। वह अगर मीडिया से नहीं लड़ेगा तो आपके भीतर के विपक्ष को नहीं बचा पाएगा। आप देखिए कि विपक्ष का कौन नेता इस गोदी मीडिया के लिए लड़ रहा है। इस बार अगर आप नागरिकता के इस इम्तहान में हारेंगे तो अगले पांच साल ये मीडिया अपने कंधे पर आपकी लाश उठाकर नाचेगा। अपवादों से कुछ मत देखिए। इस देश में हमेशा कुछ लोग रहेंगे। मगर देखिए कि जहां बहुत लोग हैं वहां क्या हो रहा है। आपकी हार मैं जानता हूं, क्या आप अपनी जीत जानते हैं? 2019 के जून में इस पर बात होगी। मीडिया को मारकर आपको क्या मिलेगा, इस पर एक बार सोच लीजिएगा।

Thursday 6 September 2018

नोटबंदी के समय उल्लू बने लोग हाज़िर हों, 99.30 पैसा बैंक में आ गया है

कल्पना कीजिए, आज रात आठ बजे प्रधानमंत्री मोदी टीवी पर आते हैं और नोटबंदी के बारे में रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट पढ़ने लगते हैं। फिर थोड़ा रूक कर वे 8 नवंबर 2016 का अपना भाषण चलाते हैं, फिर से सुनिए मैंने क्या क्या कहा, उसके बाद रिपोर्ट पढ़ते हैं। आप देखेंगे कि प्रधानमंत्री का गला सूखने लगता है। वे खांसने लगते हैं और लाइव टेलिकास्ट रोक दिया जाता है। वैसे कभी उनसे पूछिएगा कि आप अपने उस ऐतिहासिक कदम के बारे में क्यों नहीं बात करते हैं? भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट आई है। नोटबंदी के बाद 99.30 प्रतिशत 500 और 1000 के नोट वापस आ गए हैं। नोटबंदी के वक्त 15.41 लाख करोड़ सर्कुलेशन में था। 15.31 लाख करोड़ वापस आ गया है। रिज़र्व बैंक ने कहा है कि वापस आए नोटों की सत्यता की जांच का काम समाप्त हो चुका है। तो व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के ज़रिए जो भूत पैदा किया गया कि नकली नोटों का जाल बिछ गया है। 1000 के नोट पाकिस्तान से आ रहे हैं। काला धन मार्केट में घूम रहा है। फिर हंगामा हुआ कि लोग अपना काला धन जन धन खाते में जमा कर रहे हैं। लाइन में जो ग़रीब लगा है, वो अपने पांच सौ हज़ार के लिए नहीं लगा है बल्कि वह काला धन रखने वाले अमीर लोगों का एजेंट है। तब तुरंत बयान आया कि इन खातों की जांच होगी और सब पकड़ा जाएगा। एक नया हिसाब इसका नहीं है। न तो चौराहे पर न ही दो राहे पर। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी से यह भी भूत पैदा गया कि जो ब्लैक मनी होगा वो बैंक में नहीं आएगा। उतना पैसा नष्ट हो जाएगा। इसतरह जिसके पास काला धन है वो नष्ट हो जाएगा। सारे दावे बोगस निकले हैं। जिनके पास पैसा था, उनके पास आज भी है। अगर काला धन ख़त्म हो गया होता तो राजनीति में ही उसका असर दिखता। नेताओं के पास रैली के पैसे नहीं होते। वैसे बीजेपी ने चुनावी ख़र्चे को सीमित किए जाने की राय का विरोध किया है। नोटबंदी के कारण लोगों के काम छिन गए। नौकरियां गईं। इन सब को चुनावी जीत के पर्दे से ढंक दिया गया । उस समय एक और बोगस तर्क दिया जाता था कि नोटबंदी के दूरगामी परिणाम होते हैं। दो साल होने को है, उन दूरगामी परिणामों का कोई लक्षण नहीं दिख रहा है। वैसे यह भी नहीं बताया गया कि दूरगामी परिणाम क्या क्या होंगे। तो आप क्या बने….ज़ोर से बोलिए..उल्लू बने। क्या अच्छा नहीं होता कि जिन जिन लोगों ने व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की बातों से सपना देखा था, वो सभी बाहर आएं और कहें कि हां हम उल्लू बने। हम उल्लू थे, उल्लू रहेंगे। वैसे उल्लू बने बैंक वाले। उन्हें लगा कि देश सेवा की कोई घड़ी आ गई है। जब उन पर अचानक नोटों के अंबार गिनने का काम थोप दिया गया तो कई कैशियरों से हिसाब जोड़ने में ग़लती हुई। 20-30 हज़ार सैलरी पाने वाले बहुत से कैशियरों ने अपनी जेब से 5000 से लेकर 3-3 लाख तक जुर्माना भरा। ऐसे लोगों पर कई बार पोस्ट लिख चुका हूं। वो लोग भी चाहें तो बाहर आ सकते हैं कि कह सकते हैं कि हां हम उल्लू बने। आपको पता ही होगा कि आज (29.8.2018) रुपया ऐतिहासिक गिरावट पर है। एक डॉलर आज 70 रुपये 52 पैसे का हो गया।